लोकनाट्य बिदापत


लोकनाट्य बिदापत


      मिथिला में लोकनाट्यों की परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है । सम्पूर्ण भारत के लोकनाट्यों को प्रभावित करने वाले तीन मुख्य कारण की उत्पत्ति यही हुई है । 11वीं शताब्दी में ज्योतिरीश्वर ठाकुर द्वारा रचित वर्णरत्नाकर, जयदेव का 'गीतगोविंद' तथा उमापति द्वारा रचित 'पारिजातहरण नाटक'  इन तीन ग्रंथो का प्रभाव उत्तर से दक्षिण, पूर्वी भारत के लगभग सभी लोकनाट्यों पर पड़ा । ज्योतिरीश्वर ठाकुर के द्वारा रचित 'वर्णरत्नाकर' की बात करें तो यह महाकाव्य विश्वकोषीय ग्रंथ है । यह ग्रंथ तत्कालीन समाज और कला का विश्वकोश है । वर्णरत्नाकर गद्य काव्य है, जो प्राचीन मैथिली में विरचित है । विद्वानों ने इसे आधुनिक आर्य भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ कहा है, बिदापत  तथा नटुआ नाच जैसे नाट्य रूपों की चर्चा हमें वर्णरत्नाकर से ही मिलती है, वर्णरत्नाकर में वाद्यों कलाजीवियों, चौसंठ कलारूपों, नायक - नायिका के प्रकार का उल्लेख हुआ है । संगीतशास्त्रीय दृष्टि से वर्णरत्नाकर महत्वपूर्ण ग्रंथ है, इसमें 45-46 रागों का उल्लेख हुआ जिंका प्रयोग कीर्तनियाँ नाटकों में हुआ है ।
      जयदेव द्वारा रचित गीतगोविंद भारतीय कला इतिहास में मोड साबित हुआ । गीतगोविंद वैष्णव परंपरा का भक्ति काव्य है । जिसमें वृन्दावन में  राधा और कृष्ण की विविध काम - क्रीड़ाओं का चित्रण है । इस काव्य का उद्देश्य श्रृंगार के माध्यम से भक्ति है। इसके पद, सर्ग संगीतबंध है जिसमें रागों का उल्लेख् हुआ है । तीसरा इसमें नाट्य तत्व है । सभी प्रबंधों में निरंतर विद्यमान यह नाट्य तत्व उन्हे नृत्य संगीत का रूप ब्रजबूलीकरता है । इस प्रकार गीतगोविंद में काव्य नाट्य, संगीत और नृत्य, इन चारों को समाहित करने की अद्भुत क्षमता है । असम के शंकरदेव की रचनाओं, बिहार के उमापति की कृतियों, तमिल क्षेत्र के भागवत मेला नाटकों, कर्नाटक और आंध्र के यक्षगान मलयालम ,कृष्णट्ट्म और कथकली, इन सबका अंतिम प्रेरणा स्रोत गीतगोविंद है ।
      डॉ॰ राघवन का मत है की संसार में संगीत और नृत्य के सम्पूर्ण इतिहास में जयदेव के गीतगोविंद से बढ़कर कोई कृति नहीं। [1]तीसरी महत्वपूर्ण कृति उमापति 'पारिजातहरण' जो पूर्व से दक्षिण तक के कई लोकनाट्यों में खेला जाता है । कालांतर में कर्नाटक में 'कृष्ण पारिजात' नाट्यरूप ही विकसित हुआ, जो आज भी प्रदर्शित होता है । वैष्णव संत शंकरदेव ने भी उमापति से प्रभावित हो पारिजातहरण यात्रा की रचना की । [2]
      त्रिपुरा के ढब जात्रा, उत्तर बंगाल के जात्रा, बिहार के बिदापत  नाच आदि पारंपरिक नाट्यों में पारिजातहरण का कथानक बहुत दिनों तक मंचित होता रहा । धार्मिक होते हुए भी इसका कथानक सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों से विकसित हुआ । यहाँ कृष्ण आलौकिक  शक्ति नहीं बल्कि दो पत्नियों के मध्य विवाद को सुलझाने में असफल गृहस्थ है । इस कारण यह कथानक कई नाट्य रूपों में प्रचलित हुआ ।
      मिथिलांचल में नृत्यप्रधान लोकनाट्यों को नाच कहा जाता है । चौदहवीं शताब्दी में ज्योतिरीश्वर वर्णरत्नाकर ने लोरिक नाच[3], विद्यापति (गोरक्षविजय) ने दक्षिण देशीय नाच, और जयकान्त मिश्र ने कार्तिक नाच (नृसिंह नाच ) का उल्लेख किया है । मिथिलाञ्चल में सलहेस, कमला, नारदी, बिदापत  पसरिया आदि नाच अद्यतन पारंपरित है । [4] ज्योतिरीश्वर और विद्यापति ने नाट्य को नृत्य की पर्यायवाची सीमां में बांधा है । नेपाल में रथयात्रा के अवसर पर कार्तिक नाच जैसे मैथिली लोकनाट्य की और मिथिला में पारिजातहरण नाच की परंपरा बनी हुई है । अतः मिथिलाञ्चल में नाच अथवा नाट्य सदियों से लोकरुंजन का जीवंत और सशक्त माध्यम बना हुआ है । [5] मिथिला की इसी सशक्त परंपरा में बिदापत   का उद्भव होता है ।
 बिदापत का उपजीव्य: गीतगोविंद तथा विद्यापति
      बिदापत  वैष्णव परंपरा का लोक नाट्य है । मिथिला में वैष्णव नाट्य परम्पराओं में कीर्तनियाँ तथा बिदापत  नाच है । दोनों के कथानक में कृष्ण की लीला केंद्र में है । उमापति द्वारा रचित 'पारिजातहरण' दोनों के मंच पर खेला जाता है ।
      मिथिला में वैष्णव नाट्य का मूल खोजा जाए तो जयदेव द्वारा रचित 'गीतगोविंद' सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है । जयदेव का गीतगोविंद राधा कृष्ण प्रसंग पर रचित उत्कृष्ट रचना है । गीतगोविंद में श्रृंगार के माध्यम से भक्ति व्यक्त हुई है । कृष्ण का मानवीय चरित्र यहाँ देखने को मिलता है । गीतगोविंद के पदों तथा अभिनय को बिदापत   में खेला जाता है । उमापति द्वारा पारिजातहरण कृष्ण के ईश्वरीय चरित्र को मानवीय धरातल उतारता है । जहाँ वह एक गृहस्थ के रूप में विवाद सुलझाते नजर आते है । यही पारिजातहरण कीर्तनियाँ में भी खेला जाता है ।
      मिथिला में वैष्णव धारा का प्रसार का एक कारण 'विद्यापति' भी रहे । जयदेव के गीतगोविंद का प्रभाव विद्यापति की कृष्ण पदावलियों पर देखा जा सकता है । जयदेव के कृष्ण लौकिक स्तर पर रास रचते नज़र आते है । विद्यापति की पदावलियों में कृष्ण और राधा को कोमलतम श्रृंगार पक्ष देखने को मिलता है । जयदेव के बाद विद्यापति पूर्वाञ्चल भारत में कृष्ण के बड़े प्रणेता हुए । [6]
      विद्यापति मिथिला के शासक हरीसिंह के दरबार में थे । जयदेव की तरह विद्यापति श्री राधाकृष्ण विषयक वसंत रास के ही गीत रचे । पूर्वाञ्चल भारत में मंचीय परंपरा भी वसंत रास की है । विद्यापति रचित मान, रास, श्रृंगार के गीत, मिथिला के कंठ में प्रवाहमान है । इन नाट्यरुपों के अलावा बिहार में मध्यकाल से ही लीलनाट्य ( कृष्णलीला,रामलीला) छिटपुट प्रदर्शन होते रहे । बंगाल में लगे रहने के कारण पूर्वोत्तर बिहार में जात्रा का मंचन भी होता रहा । [7]
1808 में फ्रांसिस बुकानन ने एकाउंट्स ऑफ पूर्णिया डिस्ट्रिक्ट में कुछ कलारूपों का वर्णन किया है ।[8]
      डॉ॰ बुकानन ने भक्तिया, नृत्यकली, भीमसेन और सलेस की गाथा तथा कालीयदमन आदि के प्रदर्शन के साथ गीतगोविंद की पदावली पर आधारित नृत्य-गीत की चर्चा की गई है । बिदापत   के अलावा नारदी- गायन में गीतगोविंद की पदावलियों को गाथा को कहा जाता था । [9] 
      भक्ति आंदोलन के बाद श्रमिक और शिल्पी वर्ग में आंतरिक चेतना की भावना संपुष्ट हुई । यह वर्ग जो व्यवस्था पर मौन थी, उनमें सामाजिक चेतना का भाव जागा । सामाजिक घटनाओं के प्रति वह सचेत हुआ । मिथिला के वैष्णव नाटकों के मूल में जयदेव के 'गीतगोविंद' विद्यापति उमापति आदि के राधाकृष्ण विषयक लीलापरक प्रसंगगीत ,चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन और वल्लभाचार्य का रास उत्प्रेरक तत्व है। इसकी लोकप्रियता जनसमान्य से आभिजात्य तक समान रूप पारंपरित है। बिदापत  नाच में विद्यापति और उनकी भाव परंपरा के गीतकारों के प्रसंग गीतों का अभिनय अनुगायन होता है। बिदापत  में जयदेव के रासगीतों के समानान्तर विद्यापति के नृत्यगीत भी प्रदर्शित होते है -'नाचय गोपीसभ करय कीलोला पैरहकु नुपूर कीनकीन बोल'[10]
      बिदापत  मिथिलाञ्चल ( उत्तर बिहार और नेपाल का दक्षिण पूर्व क्षेत्र ) का जनप्रिय लोक नाट्य है । मध्यकाल की पृष्ठभूमि में इसका स्वरूप सामने आता है । नाट्य संरंचना और अभिनय पद्धति के लिहाज से यह असम के अंकिया नाट,बिहार के कीर्तनियाँ से साम्य रखता है । नाटक के प्रारम्भ में प्रस्तावना, वंदना और अंत में 'मंगलगायन' इस परंपरा का संबंध पुरातन नाट्य रासक और शास्त्रीय रंगमंचसे स्थापित करता है । बिदापत  में आज भी जयदेव के गीतगोविंद की नाच पद्धति,रास परंपरा के अवशेष देखे जा सकते हैं । पिछले एक हजार वर्षों से यह लोकरंजन का माध्यम बना हुआ है ।
बिदापत  का नामकरण
 नाट्य प्रयोक्ता और रसिक दोनों ही आलोच्य नाट्य रूप को बिदापत ही कहते हैं । प्रस्तुतीकरण, शैली और स्वरूप को देखते हुए बिदापत नामकरण निर्विवाद है । सिर्फ बिदाप शब्द को लेकर नाट्यविदों में मतभिन्नता है । यह मतभिन्नता पूर्वाञ्चल भारत के समकालीन अन्य नाट्य रूपों में भी है । असम के अंकिया नाट और मिथिला के कीर्तनियाँ नाट्य का नामकरण नाट्य प्रयोकताओं द्वारा नहीं बल्कि नाट्यविदों द्वारा किया गया । प्रयोक्ताओं ने इन नाट्य रूपों को नाट,नाटिका,जात्रा तथा संगीतक आदि कहा है । [11]
      इस लिहाज से पूर्वाञ्चल भारत के मध्यकालीन नाट्य रूपों में बिदापत  अपवाद है की प्रयोक्ता, रसिक और नाट्यविदों ने इसे बिदापत  से संज्ञापित किया है । जगदीश चंद्र माथुर ने बिदापत  को विद्यापति से प्रेरित माना है। वे मानते है की इसमें विद्यापति की पदावलियों को गया जाता है । [12]प्रथम दृष्ट्या से यह समीचीन भी लगता है । विद्यापति पूर्वाञ्चल भारत के लोककंठों में रचे बसे है, बिदापत  प्रदर्शन के पूर्वरंग में विद्यापति की पदावलियाँ गाई जाती है । अतः स्वाभाविक रूप से विद्यापति और बिदापत  के संबंध जुडते है, लेकीन ज्योतिरीश्वर ठाकुर द्वारा 13वीं शताब्दी में विरचित विश्वकोषीय ग्रंथ वर्ण रत्नाकर में वर्णित विदाओंत शब्द पुनर्विचार के लिए प्रेरित करता है । वर्ण रत्नाकर के अंत साक्ष्य के अनुसार 13वीं सदी के उत्तर-पूर्वी भारत में विद्यावंतों और कलावंतों ने विदाओंत, भात, कत्थक तथा दंधौंसि आदि कालजीवि के रूप में अपनी पहचान बना ली थी । ये कालजीवी मांगलिक एवं अनुष्ठानि कअवसरों पर राजा और सामंतों का यशोगान और अनुरंजन किया करते थे । यह तो तय था की वर्णरत्नाकर में वर्णित विदाओंत कलाकारों का समूह था, जो नाच ( नाट्य ) प्रदर्शन किया करता था । प॰ गोविंद झा बिदापत  का संबंध विदाओंत से संबंध जोड़ते हुए कहते है
      "बिदापत नाच विदाओंत की परंपरा में जीवित है , ध्वनि सांयमूलक भ्रांति के कारण विदाओंत की जगह बिदापत  का प्रचलन संभावित है । हाँ, इतना स्वीकार्य है की इसके मूल में विद्यापति किसी  न किसी  रंग में उपस्थित । [13]
      विद्यापति की भगवती वंदना एवं रासगीतों का आरंभ एवं एवं के लीलापरक गीतों की प्रधानता के कारण भी बिदापत  नामकरण का औचित्य प्रमाणित होता है । डॉ॰ प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन की स्थापना है की ज्योतिरीश्वर ने तदयुगीन नाट ( नाच: नाट्य ) के नायक को विद्यावन्त कहा है । [14]विदाओंत,विद्यावंत का मैथली अपभ्रंश है । इन तथ्यों का विश्लेषण किया जाए तो बाते बातें स्पष्ट होती है । -
      विद्यावंत >विदाओंत >बिदापत  , व्युत्पत्ति क्रम है तथा बिदापत  ज्योतिरीश्वर के समय से प्रचलित है । लेकीन लोक इतिहास में 'विदाओंत' के संबंध में कोई तथ्यपरक व्याख्या उपलब्ध नहीं है । उनका समर्थन विद्यापति > बिदापत  के पक्ष में है । निष्कर्ष में कहा जा सकता है की विदाओंत जो ज्योतिरीश्वर के समय से नाट्य प्रदर्शन करते आ रहे थे । कालांतर में उन्होने कृष्ण-विषयक लीलापरक अभिनय पद्धति को अपनाया । जिस प्रकार बंगाल में चैतन्य देव , आसाम में शंकर देव ने वैष्णव आंदोलन का नेतृत्व किया; उसी प्रकार मिथिला में उमापति और विद्यापति अग्रसर थे । विद्यापति के राधाकृष्ण विषयक पदावली में कथा तत्व जुडने से बिदापत  जैसे नाट्य रूप अस्तित्व में आया । इस तरह बिदापत  का संबंध विदाओंत और विद्यापति से स्वाभाविक रूप से जुड़ जाता है ।
बिदापत- उद्भव और विकास
      बिदापत  के उद्भव और काल का कोई लिखित या मौखिक साक्ष्य नहीं हमारे पास नहीं है । प्रदर्शन के वर्तमान स्वरूप या उपलब्ध नाट्य संबंधी लक्षण ग्रन्थों में वर्णित कलारूपों के विवेचन से कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष अवश्य निकाले जा सकते है । मिथिला में 10वीं शताब्दी से पहले रंगमंच और नाटक का कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । 13वीं सदी में ज्योतिरीश्वर ने वर्णरत्नाकर की रचना की । वर्णरत्नाकर के कई कलारूपों का उल्लेख हुआ है, विरहा और लोरिक नाच 13वीं सदी का महत्वपूर्ण लोकनाट्य प्रतीत होता है । वर्णरत्नाकर में विदाओंत का उल्लेख कई स्थलों पर हुआ है
*     विदाओंत आस्थान भीतर भऊ तका पछा तेलङ्गी . मरहठी ...तइसेता विदाओंत आस्थान वइसु....[15]
*     विदाओंत के तान्हिक गीत, नृत्य, वाद्य, ताल, घाघर परीठरइतें आह...
अथ राज्य वर्णना ... [16]
      वर्णरत्नाकर के षष्ट कल्लोल के विद्यावंत वर्णना में विदाओंत का उल्लेख हुआ है, जिसमें कहा गया है की तेलङ्गी और मरहठी से आगे विदाओंत के बैठने का स्थान निर्धारित था । तेलङ्गी और मरहठी भी विद्यावंत ( प्रदर्शंकारी कलाकार ) थे । तेलङ्गी मानी तेलङ्ग देश का निवासी । विद्यापति ने अपने नाटक गोरक्ष विजय में तेलङ्ग देश के नाट के द्वारा कला प्रदर्शन की चर्चा की है । दूसरे प्रसंग 'राज्यवर्णना' से स्पष्ट है की विदाओंत घाघरा पहनकर गीत,नृत्य,वाद्य, और ताल के साथ प्रदर्शन करते करते थे ।
      वर्णरत्नाकर में कहीं भी विदाओंत के प्रदर्शन के रूप का उल्लेख नहीं हुआ है । वर्णरत्नाकर में कहीं भी विदाओंत द्वारा प्रस्तुत गीत, नृत्य, वाद्य, और ताल की प्रशंसा की गई है । विदाओंत द्वारा प्रदर्शित कलारूपों में गीत,नृत्य,वाद्य, और ताल का समायोजन था । जिस प्रकार भरतमुनी के काल में नाट्य के लिए अलग अभिधान नहीं था, वह नृत्य में ही समाहित था । ज्योतिरीश्वर ने वर्णरत्नाकर में ' अथ नृत्य वर्णना ' के अंतर्गत नाट,नटी,अभिनय रंगशाला आदि का वर्णन किया है । अतः है की विदाओंत नाट्य प्रदर्शन था ।
      कृष्ण विषयक रंगमंच भक्तिकाल की देन है, परंतु जिस परंपरा से इसने अपना वर्तमान स्वरूप ग्रहण किया । वह बहुत ही प्राचीन और महत्वपूर्ण है । इस महत्वपूर्ण परंपरा में रास और संगीतक विशेष उल्लेखनीय है । यह संभव है की विदाओंत प्राचीन नाट्यरासक का कोई न कोई प्रचलित रूप था । प्राचीन उल्लेखों से यह प्रमाणित है की रास के आदि प्रणेता स्वयं भगवान कृष्ण थे । कृष्ण की जन्मास्थली मथुरा के चारों और अभीर या अहीर जाति भारी संख्या में बसी थी । इस जाति में नृत्य और गायन वादन की विशिष्ट परंपरा थी और इनका हललिश या हल्लीसक नृत्य बहुत ही लोकप्रिय था । [17] कहा जाता है की इसी नृत्य रूप को एक विशिष्ट कलात्मक स्तर देकर श्री कृष्ण ने रास नृत्यों का विकास किया । हल्लीसक नृत्य के आशय ग्रन्थों में यत्र-तत्र जो उल्लेख है उन सभी में प्रायः यह स्वीकार किया जाता है की यह आवर्त (मंडलाकार) नृत्य था, जिसमें एक ही नायक अनेक नायिकाओं के साथ विहार करता था । हरिवंश पुराण के अनुसार इन्द्र विजय के बाद कृष्ण द्वारा गोपीकाओं को बुलाकर जो नृत्य गायन का आयोजन हुआ वह रास नृत्य कहलाया । मिथिला के बिदापत  के रास प्रसंग में राधा या गोपीकाओं के संग कृष्ण अकेले ही रमन करते हैं । हल्लीसक से प्रेरित रास में कालांतर में कृष्ण विषयक कई लीलाओं का समावेश हुआ । लीलापरक गीतों में संवादों का भी प्रवेश हुआ फिर इसे नृत्य,गीत और अभिनय के साथ प्रस्तुत किया जाने लगा । इस प्रकार रास परंपरा में नाट्य रासक का उद्भव हुआ । बाद के लक्षण ग्रन्थों यथाह नाट्यशास्त्र, अग्निपुराण में रासक को उपरूपकों में स्थान दिया गया है ।
भरत ने रासक के दो भेद कीए है :
*     नृत्य रासक
*     नाट्य रासक
नृत्य रासक के तीन भेद उपभेद कीए गए हैं
*     मण्डल रासक ख. दंड रासक ग. ताल रासक
      नाट्यशास्त्र के अनुसार नृत्य रासक, नृत्य और गायन की परंपरा थी, जबकी नाट्यरासक नृत्य, रूपकला और अभिनय से सयुंक्त था ,नृत्य रासक में मंडलाकार नृत्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । इसका विस्तार आज भी कृष्ण विषयक प्रदर्शंकारी कलाओं में देखा जा सकता है । मण्डल में जब हाथ में डंडे लेकर उन्हे बजते हुए नर और नारी समूहिक रूप से नाचते थे तब वह लकुट रस या दंडक रास कहलाता था । जब यह नृत्य विशेष तालबंधों में नाचा जाता था तब उसे ताल ताल रासक कहा जाता है ।
      शारदातनय ने भावप्रकाशन में नाट्य रासक के लिए नाट्य रस शब्द का प्रयोग किया है तथा अंकिया उपरूपक कहा गया है । दसरूपक की अवलोक टीका से सिद्ध होता है की नाट्य रासक में हास्य रस सम्मिलित हो चुका था । भावप्रकाशन में नाट्य रासक के एकाँकी रूप का उल्लेख है उसमें नांदी पाठ, पाँच पात्रों का विधान , मुख, प्रतिमुख और निर्वहन संधियाँ का प्रयोग, कौशकी और भर्ती वृत्तियों के निर्वाह तथा मूर्ख नायक और योग्य नायिका, विभिन्न भाषाओं का प्रयोग आदि आवश्यक माने गए है । साहित्य दर्पण के रचयिता विश्वनाथ ने भी भावप्रकाशन के मत की पुष्टि की है । रामचंद्र गुणचंद्र(नाट्य दर्पण ) ने रासक के लिए एक अंक तो स्वीकार किया है परंतु उनकी अन्य विशेषताओं के रूप में उसने बहुताल लय स्थिति, उदात  नायक,उपनायक, श्रृंगार और हास्य रसों, वासक सज्जा नायिका और लास्यांगों के नियोजन का उल्लेख है ।
लक्षणकारों के अभिमत से स्पष्ट है की नाट्य रासक एक एकाँकी उपरूपक था,जिसमें नृत्य और गायन की प्रधानता रहती थी । स्त्रीपात्र और विदूषक अनिवार्य रूप से रहते थे । कथानक में श्रृंगार के साथ हास्य रस का समावेश रहता था । तत्कालीन समाज में प्रचलित सभी भाषाओं और बोलियों का प्रयोग होता था ।
      आज बिदापत  का बिकटा नाट्य रासक के विदूषक जैसा पात्र है ।  बिदापत  प्रदर्शन में आज भी श्रृंगार रस के साथ हास्य रस का पूत है । यह तो बात हुई विदाओंत से नाट्य रासक के अन्तः संबंध की, जिसकी पुष्टि भी हो जाति है । लेकीन आज जो बिदापत  प्रदर्शन का स्वरूप है, वह निश्चित रूप से विद्यापति की पदावलियों और जयदेव द्वारा आरंभ कीए गए गीत नृत्य और वाद्यवृंद की पद्धति पर आधारित है ।
      जयदेव का गीतगोविंद भारतीय नाट्य परंपरा में एक लोक प्रवर्तक के रूप में अवतीर्ण हुआ । जयदेव ने श्रीमदभागवत के दसम स्कन्ध के रास प्रसंग को नृत्य संगीत में निबद्ध करके न सिर्फ दृश्य बांध का विकास किया, वरन एक नवीन संवाद पद्धति को प्रचलित किया । गीतगोविंद में कुल बारह सर्ग है । एक सर्ग में कम से कम एक , अधिक से अधिक चार अष्टपदियाँ है । प्रत्येक अष्टपदी के पूर्व और अंत में कथायोजक सूत्र के रूप में अथवा आशीर्वाद के रूप में श्लोक है । अष्टपदी की योजना इस प्रकार है की वह गाई जाए और उसके साथ साथ अभिनय प्रस्तुत हो । पद के एक एक टुकड़े में संगीत और नृत्य की असीम संभावनाएं है । सूत्रधार द्वारा मंगलाचरण उसके बाद अन्य पात्रों द्वारा ध्रुवपद सहित संलाप, सूत्रधार का बराबर मंच पर उपस्थित रहना गीतगोविंद की नई अष्टपदियां आज भी बिदापत  रंगमंच पर देखि सुनी जाति है । गीतगोविंद का मान प्रसंग अभी भी बिदापत  मंच पर अभिनीत होता है । मिथिलांचल के नारदी गायन में अभी भी गीतगोविंद की अष्टपदियां संस्कृत में ही गाई जाती है । 1808 में फ्रांसिस बुकानन ने पूर्णियाँ वृतांत में, जिले के उत्तरी पश्चिमी भाग में गीतगोविंद की अभिनय परंपरा का उल्लेख किया है । [18] 
      जयदेव के बाद विद्यापति पूर्वाञ्चल भारत में कृष्ण के बड़े प्रणेता हुए । विद्यापति मिथिला के शासक हरीसिंह के दरबार में थे । वे जयदेव परंपरा के सबसे उन्नायक थे । जयदेव की तरह ही विद्यापति ने भी राधाकृष्ण विषयक वसंत रास के गीत रचे । मणिपुरी रास भी वसंत रास का प्रतिनिधि नाट्य रूप है । विद्यापति रचित मान, रास,विप्रलंभ श्रृंगार के गीत, मिथिला के लोककण्ठ में प्रवाहमान है ।
      बिदापत  के प्रवेश गीत का शिल्प मिथिला के कीर्तनियाँ और अंकिया नाट से मेल खाता है । जबकी राधा और कृष्ण का रूप सौंदर्य विद्यापति सृजित है । बिदापत  की भवति वंदना विद्यापति रचित है । कंठ परंपरा में होने के कारण कई शब्द लोककवियों द्वारा बादल दिये गए हैं । बाद में कवियों ने कई पदावलियों की भाषा,छंद,काव्य सौन्दर्य की शैली हुबहु विद्यापति की पदावलियों विद्यापति की है या किसी  और भी ।
      इस प्रकार बिदापत  नाट्य रासक परंपरा में विहार के पारंपरिक नाट्य में प्राचीन है । विदाओंत जो प्राचीनकाल से नाट्य रासक जैसी नाट्य विधाओं का प्रदर्शन करते आ रहे थे, कालांतर में जयदेव के गीत गोविंद और विद्यापति रचित राधा-कृष्ण विषयक पदावलियों का मंचन आरंभ किया । कुछ विद्वानों ने बिदापत  को कीर्तनियाँ नाटक का परवर्ती रूप माना है, यह उचित नहीं जान पड़ता । बिदापत  जहाँ नाट्य रासक परंपरा का नाट्य रूप है, वही 'कीर्तनियाँ 'संगीतक' परंपरा का नाट्य है ।
      मध्यकाल की भक्ति आंदोलन में कृष्ण विषयक पृष्ठभूमि से आए बिदापत  के स्वरूप से पता चलता है यह रास परंपरा में सबसे प्राचीन है । बिदापत  बिहार की वैष्णव लोक नाट्यों की सम्पदा है ।ऊपर  दिये गए तथ्यों तथा विचारों के विश्लेषण से कुछ बातें निकल कर आती है । 
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-    कुमार गौरव मिश्रा
शोधार्थी नाट्यकला एवं फिल्म अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालया, वर्धा, महाराष्ट्र
ईमेल- kumar.mishra00@gmail.com
                              Mobile - 7507489967



[1] राघवन,वी,'उपरूपक एवं नृत्य प्रबंध'(1956 में आयोजित अखिल भारतीय नृत्य संगोष्ठी में पढ़ा गया लेख )
[2] बरुआ,सिंधी कुमार,'अंकिया नाट',परिचय खंड पृष्ठ 19
[3] 'वर्ण रत्नाकर ',मैथिली अकादमी ,पटना, 1980
[4] नवभारत टाइम्स ( पटना संस्कारण )-23 जुलाई, 1993 ई॰
[5] मौन,प्रफुल्ल कुमार सिंह ,' मैथिली के परंपरित लोकनाट्य; रंग अभियान ,बिहार 
[6] भारती,ओमप्रकाश,'लोकायन:लोककला रूपों पर एकाग्र',पृष्ठ 129
[7] 'the bihaar theatre general ‘,year 1954,ank 4,page no 29-32
[8] Bukanan,fraansis,’account of purniya dishtrict’,page no 516-519
[9] वही, पृष्ठ 159
[10] मौन,प्रफुल्ल कुमार सिंह,'मैथली के परंपरित लोकनाट्य,' रंग अभियान',बिहार,पृष्ठ 16
[11] भारती,ओमप्रकाश,'लोकायन:लोककला रूपों में समग्र ', पृष्ठ 125
[12] माथुर,जगदीशचन्द्र,'परम्पराशील नाट्य',पृष्ठ 117 
[13] झा,'गोविंद,'रंग अभियान',अंक 6
[14] मौन,प्रफुल्ल कुमार सिंह,'मैथली के परंपरित लोकनाट्य,' रंग अभियान',बिहार,पृष्ठ 18
[15] ठाकुर,ज्योतिरीश्वर,'वर्णरत्नाकर',स्ंपा डॉ॰ सुनीति कुमार चटर्जी,डॉ॰ सबुआजी मिश्र,विद्यावंत वर्णन,षष्ठ कल्लोल  
[16] वही ,'(अथ राज्य वर्णना )
[17] अग्रवाल,रामनारायण,'ब्रज का रास रंगमंच',पृष्ठ 32
[18] फ्रांसिस बुकानन,'एकाउन्टस ऑफ पूर्णियाँ डिस्ट्रिक्ट', पृष्ठ 160 

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