अरुणाचल प्रदेश का लोकसाहित्य: वीरेंद्र परमार
अरुणाचल प्रदेश का लोकसाहित्य
- वीरेंद्र परमार
अरुणाचल प्रदेश अपने नैसर्गिक सौंदर्य,सदाबहार घाटियों, वनाच्छादित पर्वतों, बहुरंगी संस्कृति, समृद्ध विरासत, बहुजातीय समाज, भाषायी वैविध्य एवं नयनाभिराम वन्य-प्राणियों के कारण देश में विशिष्ट स्थान रखता है । अनेक नदियों
एवं झरनों से अभिसिंचित अरुणाचल की सुरम्य
भूमि में भगवान भाष्कर सर्वप्रथम अपनी रश्मि विकीर्ण करते हैं, इसलिए इसे उगते हुए सूर्य की भूमि का अभिधान दिया गया है । इसके पश्चिम में भूटान और तिब्बत, उत्तर तथा उत्तर – पूर्व में चीन, पूर्व एवं दक्षिण – पूर्व में म्यांमार और दक्षिण में असम की ब्रह्मपुत्र घाटी स्थित है
I पहले यह उत्तर – पूर्व सीमांत एजेंसी अर्थात नेफा के नाम से जाना जाता था I 21 जनवरी 1972 को इसे केन्द्रशासित प्रदेश बनाया गया I इसके बाद 20 फ़रवरी 1987 को इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया I प्रदेश में
निम्नलिखित जनजातियाँ निवास करती हैं : आदी, न्यिशी, आपातानी, हिल
मीरी,
तागिन, सुलुंग, मोम्पा, खाम्ती, शेरदुक्पेन, सिंहफ़ो, मेम्बा, खम्बा, नोक्ते, वांचो, तांगसा, मिश्मी, बुगुन
(खोवा), आका, मिजी
I ईटानगर का ईटाफोर्ट, बौद्ध मठ, जनजातीय
संग्रहालय देखने लायक है I अरुणाचल
प्रदेश के सियांग जिले में स्थित मलिनीथान एक प्रसिद्ध पौराणिक स्थल है । लोकसाहित्य
के अनुसार मालिनीथान का संबंध भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मिणी से है। कालांतर में यह
स्थान मलिनीथान (मलिनीस्थान) के रूप में
विख्यात हुआ। अरुणाचल के लोहित जिले में स्थित ताम्रेश्वरी मंदिर भी राजा
भीष्मक से संबन्धित है। तवांग का बौद्ध मठ (बौद्ध गोम्पा ) एशिया का सबसे बड़ा बौद्ध गोम्पा माना जाता है । यह लगभग 350 वर्ष पुराना है । समुद्र तल से इस गोम्पा
की ऊंचाई दस हजार फीट है । यहां पर 500 लामाओं के ठहरने की व्यवस्था है । यह भारत का अपनी तरह का
सबसे बड़ा बौद्ध गोम्पा है I अरुणाचल के लोहित जिले में
अवस्थित परशुराम कुंड एक प्रमुख तीर्थस्थल है जो भगवान परशुराम से संबंधित
है I अरुणाचल की सभी जनजातियों की अलग- अलग लगभग 25 प्रमुख भाषाएँ हैं I इनकी भाषाओं में तो इतनी भिन्नता है कि एक समुदाय की भाषा दूसरे
समुदायों के लिए असंप्रेषणीय है । डॉ. ग्रियर्सन ने अरुणाचल की भाषाओं को तिब्बती-बर्मी परिवार का उत्तरी असमी वर्ग माना है । अरुणाचलवासी संपर्क
भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग करते है, यहॉं तक कि विद्यालयों-महाविद्यालयों में भी माध्यम भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग किया
जाता है । लोकसाहित्य की दृष्टि से यह प्रदेश बहुत समृद्ध है I लोकसाहित्य में भी अरुणाचली समाज
लोकगीतों से अधिक अनुराग रखता है । इस प्रदेश का अधिकांश लोकसाहित्य गीतात्मक है
। मौखिक परंपरा में उपलब्ध इन गीतों में प्रदेशवासियों की आशा-आकांक्षा, विजय-पराजय, हर्ष-वेदना तथा विधि-निषेध सब कुछ समाहित है । सदियों के अनुभव लोकगीतों की कुछ पंक्तियों में सिमटे होते हैं ।
इन गीतों में पूर्वजों से संबंधित आख्यान, मिथक, सृष्टि की उत्पत्ति विषयक दंतकथाएं, जनजातियों का उद्भव एवं देशांतरगमन, विभिन्न प्राणियों की उत्पत्ति
संबंधी कथाएं वर्णित होती हैं । शिकार और जंगल से संबंधित पूर्वपुरुषों के अनुभवों
को भी लोकगीतों का आधार बनाया गया है । अनेक प्रकार के नीतिपरक गीतों के द्वारा
समाज को अनुशासित जीवन व्यतीत करने की शिक्षा प्राप्त होती है । वन्य जीवन से
संबंधित गीतों में प्रकृति का धूपछांही सौष्ठय दृष्टिगोचर होता है । कहा जाता है
कि अरुणाचलवासियों के लिए हवा-पानी की भॉंति ही नृत्य-गीतों की भी अनिवार्यता है । उनके निर्दोष और सरल हृदय की मसृण
भावनाएं इन गीतों के रूप में प्रकट होती हैं । अरूणाचली
लोकगीतों में अरूणाचली समाज,संस्कृति और परंपरा का मणिकांचन संयोग है । इन गीतों में प्राकृतिक जीवन का राग-रंग, भावनाओं का
उत्कर्ष और अलौकिक शक्तियों के प्रति श्रृद्धा निवेदित है । अशिक्षित और आधुनिकता
से दूर साधारण जनता इन लोकगीतों में अपने पूर्वजों की वाणी की झलक देखती है । यह
उनके अविकृत मन को शीतलता प्रदान करनेवाला ऐसा मधुरमय संगीत है जिससे शांत-क्लांत मानव
को शांति मिलती है।
अरुणाचलवासियों के जीवन में धर्म को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है । यहां की अधिकांश जनजातियां दोन्यी–पोलो के प्रति अटूट आस्था रखती है । दोन्यी–पोलो अरुणाचल का सर्वमान्य ईश्वरीय
प्रतीक है जिसे अंतर्यामी, स्वयं प्रकाशमान, सर्वशक्तिमान व सर्वहितकारी माना जाता
है। उनकी उपासना में गीत गाए जाते हैं और
पशुओं की बलि देकर पारंपरिक विधियों से इनकी पूजा की जाती है । प्रदेशवासी अनेक
पर्व त्योहार मनाते हैं । इन त्योहारों
के अवसर पर गीत गाकर इष्ट देव को प्रसन्न किया जाता है । एत्तोर, आरान, द्री, सी-दोन्यी, मोपिन
इत्यादि त्योहारों के अवसर पर गाए जानेवाले गीतों में सुख- समृद्धि और धन-धान्य की कामना की जाती है ।
अवसरों और परंपराओं के अनुरूप कुछ गीत तो पुजारियों द्वारा गाए जाते हैं
तथा कुछ गीत जन साधारण द्वारा गाए जाते हैं ।
प्राय: स्त्री-पुरूष सभी साथ मिलकर गीत गाते हैं । कुछ गीत एकल रूप में गाए जाते
हैं तो कुछ सामूहिक रूप में।
हादे-बेदे-नादो
यह बोरी जनजाति का बहुत लोकप्रिय गीत
है । इस जनजाति का निवास मुख्यत: पश्चिम कामेंग जिले में है । यह उपासना गीत है । किसी व्यक्ति के बीमार पड़ने पर उसे आरोग्य
प्रदान करने के लिए पुजारी द्वारा एक अनुष्ठान किया जाता है और “हादे-बेदे-नादो” गाया जाता है । पहले पुजारी गीत आरंभ करता है, बाद में चार-पांच महिलाएं उसे दुहराती हैं ।
इस गीत को पुरूषों द्वारा गाना वर्जित है, केवल महिलाएं ही कोरस रूप में गा सकती हैं । इस गीत में किसी वाद्ययंत्र का प्रयोग नहीं
किया जाता:
हे हे हादो बेदे नादो- हो
हे हे बेदे बेदे नादो- हो
हे हे अन्यी मेते बुलक- हो
हे हे न्यी मेते बुलक- हो
हे हे तमी मेते बलो- हो
हे हे लुबु लुतु सिमे- हो
हे हे मेते मिजि बेलोक- हो
हे हे सिकिंग, मेदोंग, अने- हो
हे हे सिकिंग, मेदोंग, अने-हो
हे हे सिकिंग, किपिर लेनी- हो
हे हे मेदोंग, दोंगके केभुंग,लोमंग
हे हे सिकिंग - कियु सुमी-पोमंग
हे हे दिगिन अरयंग- अमोंग-हो I
( श्री टी बादु – रेसारुण 1994 – अनुसन्धान विभाग, अ.प्र. सरकार का जर्नल )
भावार्थ- इस गीत में उल्लेख किया गया है कि दिव्य शक्तियों से युक्त
आदिपुरूष आबो-तानी का जन्म कैसे हुआ, मानव की मृत्यु क्यों होने लगी, मेदोंग और सिकिंग अने आबो तानी के माता पिता थे । इस गीत में वर्णित है कि एक दिन आबो
तानी के पेट में भयंकर दर्द हुआ । यह सिकिंग- युमी-पोमंग (दुष्ट शक्ति) का प्रकोप था । पुजारी ने इस दुष्ट शक्ति को प्रसन्न करने के
लिए प्रार्थना की । इसके बाद दर्द ठीक हुआ
और अबो तानी आरामपूर्वक रहने लगे । उन्होंने दोन्यी-पोलो की पुत्री से विवाह कर लिया । एक वर्ष
के उपरांत अबो तानी को बच्चा हुआ । बच्चे को पीठ पर बांधकर रखने के लिए बेंत
पट्टी (केन बेल्ट) बनाने हेतु अबो तानी को बेंत की आवश्यकता
थी । वे बेंत लाने के लिए पहाड़ पर जानेवाले थे । जाते समय उनकी पत्नी ने चेतावनी
देते हुए कहा कि पहाड़ी मार्ग में दिगिन अरयंग- अमोंग (निर्धनों की बस्ती) से होकर नहीं गुजरना । उस बस्ती से
गुजरने पर कोई संकट आ सकता है, लेकिन अबो तानी ने पत्नी की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया । इस बात
से पत्नी नाराज हो गई और अलग रहने लगी ।
घर लड़ाई का मैदान बन गया । कलह के कारण दोनों पत्नियां आपस में लड़ने
लगीं। कलह के कारण दोनों पत्नियां अबो तानी को छोड़कर अलग-अलग रहने लगीं । एक बार आबोतानी गंभीर रूप से बीमार पड़े । उनके बचने की संभावना नहीं थी । इसलिए
दोनों पत्नियों को सूचना दी गई । दोनों पत्नियां तानी के पास पहुंचकर बहुत
दुखी हुई । दोनों ने पति के स्वस्थ होने के लिए दोन्यी-पोलो की पूजा की, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ । अबो ताने की मृत्यु हो गई । कहा जाता है कि उसी समय से मनुष्य की मृत्यु
की शुरूआत हुई ।
गोमेह
हे ------- हे--------- हे
तोदी को तासो इ, जेनोने येनाने
बोरी इ कोंगकी बीते बुलुग सुइंग
सुनोन ने किदिंगे हे बिनसिंग को
सुइंग को सुनोने किदिंगे
हे बिनसिंग, बेसी करिया
तोपी इ बरिया, रेनोन रोत- तोकु
( श्री टी बादु – रेसारुण 1994 – अनुसन्धान विभाग, अ.प्र. सरकार का जर्नल )
भावार्थ- यह गीत भी बोरी जनजाति का विशेष गीत है । यह दोंगिन त्योहार के अवसर पर गाया जाता है । इसे शादी-विवाह में भी गाया जा सकता है । जब दोंगिन
त्योहार की तैयारी पूर्ण हो जाती है तब गांव के बड़े- बुजर्ग पुजारी के घर पर एकत्रित होते हैं । पुजारी इस त्योहार के
आरंभ होने की कहानी सुनाता है जो लयात्मक होती है । पुजारी पोदी-नान्यी (पर्व की देवी ) की पूजा-अर्चना करता है ताकि वह दुष्ट
शक्तियों से गॉंववासियों की रक्षा करें । देवी को अपोंग, मांस, चावल अर्पित किया जाता है ।
“गोमेह” सामुहिक रूप से गाए जाते हैं । ग्रीष्म ऋतु में ‘गोमेह’ गाना वर्जित है, इसी प्रकार औरतों का गाना भी वर्जित है । इसमें किसी वाद्ययंत्र का प्रयोग नहीं होता है
।
आका अथवा अक्का शब्द असमिया भाषा
का शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘रंगना’। इस समुदाय
के लोग अपने चेहरे को अनेक रंगों से रंगते हैं I ये लोग अनेक
पर्व – त्योहार मनाते हैं I उत्सवों के
अवसर पर ये लोग नृत्य करते हैं और गीत गाते हैं । नृत्य गीत में भाग लेने की कोई
उम्र नहीं होती । जब आका लोग अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करके आते हैं तो ये लोग
युद्ध नृत्य करते हैं, ढ़ोल बजाते हैं और गीत गाते हैं ।
पचि-दुगो-दोह (नृत्य)
पचि दो से अने दने दोह / दुगो दोह से
अने दने दोह
पचि साय से अने दने दोह / दुगो दोह से
अने दने दोह
खिचि साय
से काले से /दोन्नी से से काले से
अन्ना धने
कुरू साअ जाव / अन्ना धने जो साव जोव
सेदजी साअ
से खले से / मोंदजी साअ से खले से
अन्ना धने
वेव साअ जोव / अन्ना धने जोव साअ जोव
(श्री डी एन सैकिया - रेसारुण 1994 – अनुसन्धान विभाग, अ.प्र. सरकार का जर्नल )
हिंदी
पद्यानुवाद
हमें शेखी
बघारने वाला मत समझो,
हमने अपनी
तलवारों का जौहर दिखाया है ।
हमारी तलवार (दाव) ने दुश्मनों
के छक्के छुड़ा दिए हैं ।
हम जिस मार्ग
गुजरे / हमारी पगध्वनि
सुन,
शत्रुओं के पैरों में पंख लग गए
हमारे चरण जहां पड़े / शत्रु हुए
भाग खड़े
हमारे तीरों
का निशाना अचूक है/ और तलवार की चमक भयकारी
हमने बाघ का
काम तमाम किया / सिंहों का कत्लेआम किया,
जब घडि़याल
और अन्य जल जंतु / बाहर आए,
हमने आग से
उन्हें जलाया / फिर तलवार से मार गिराया,
दूसरे गांव
के शत्रुओं / और शैतान दुष्ट शक्तियों को,
तीर तलवार से
क्षत-विक्षत कर अशक्त किया,
आहार की तलाश
में / धनेश, गिलहरी, चूहे
और अन्य वन्ज–जीव बाहर
निकले / हमने उन्हें मार दिया
हम इन्हें
मारकर दुखी हैं / हम इन्हें मारकर उदास हैं ।
सोमन मिरि (मनोरंजन गीत)
आदी जनजाति
के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में मनोरंजन गीत का महत्वपूर्ण
स्थान है । ये गीत इनके जीवन में नये उत्साह
और नई प्रेरणा का संचार करते हैं । आदी जनजाति के निम्नलिखित गीत में पूर्वजों को
आभार व्यक्त किया गया है:
देना गुमिन्क केपंग / देना पतोर
केपंग
जे मेलो कि कोने / जे यापगो को
कोपे
देना सीलिंग में तोदिंग / देना गोमानकु
देना सिलोने कुनम गोयी गिदामें लातबंग
साकेतोंग को अदक / देना दिदमे
दोन्यी
गोयी सरिगे दाक्कु / अबा लोलन में
पोलो
गोमी करपे तो कुनम / एने न्योबोक
पकलक
( श्री एस के घोष - रेसारुण 1992 – अनुसन्धान विभाग, अ.प्र. सरकार का जर्नल )
भावार्थ: हमारे
पुरखों ने अत्यंत कठिन जीवन व्यतीत किया । उन्होंने हमें बेहतर जीवन देने के
लिए अथक संघर्ष किया । वे विदेशियों से वीरतापूर्वक लड़े । उस लड़ाई के चिह्न अभी
भी इधर-उधर बिखरे पड़े हैं । अब हम लोग सुखपूर्वक रह रहे हैं । इस आरामदेह
जीवन के पीछे हमारे पूर्वजों का कठिन संघर्ष, त्याग और
आत्म बलिदान है । अब हमारी धरती पर नई चेतना का आलोक विकीर्ण हो चुका है ।
प्रणय गीत
वांचो जनजाति
का निवास स्थान मुख्यत: तिरप जिला है ।
इस जनजाति के युवक-युवतियां स्वतंत्रतापूर्वक
अपने प्रेमोद्गार प्रकट करते हैं । इन गीतों में कोमल कल्पनाओं और निर्दोष
मनोभावों का मणिकांचन संयोग होता है । प्रेमी-प्रेमिका
संवाद के रूप में मौजूद वांचो जनजाति का प्रेम निवेदन अपने समर्पण और माधुर्य से
मन मोह लेता है:
प्रेमिका: नु जाउ अ-मा ला-अंग - ले
पु-ले-यांग फा-फाइमा छाम
वाई-आ-ले कत चेन कई-वान खाम- कोवा ।
(श्री तपन
कुमार एम बरुआ की पुस्तक “वांचो लव
सौंग” से साभार )
भावार्थ: मैंने अपनी
मॉं की कोख से जन्म लिया, लेकिन यह मेरे लिए उतनी आवश्यक नहीं थी जितना
मेरा प्रेमी मेरी जरूरत बन गया है । जब मैं इधर-उधर घूमती
हूं तो मेरा प्रिय मेरी प्रतीक्षा करता रहता है और उसकी सभी इंद्रियां मेरी राह
देखती रहती हैं ।
प्रेमी: जिकोवा मान-तिक चेन
मंग जोवन मानलाप तिंग- ता
आजे सि-पा ए-ना-सु ।
भावार्थ: जिस प्रकार
मृत्यु के बारे में कोई नहीं जानता कि यह कब आएगी, उसी प्रकार
लड़कियों का भी कोई भरोसा नहीं है । यहां तक कि गॉंव का पुजारी भी अपनी जादुई
शक्ति से लड़कियों के मन की थाह नहीं पा सकता।
प्रेमिका: मि जाई-सा लंग जेन
जि जाई-सा
जंग हान ना
जाई सा-ले अ-तान हा-ता ।
भावार्थ: नदी कभी
नहीं सूखती । पृथ्वी भी सूर्य का परिभ्रमण करना नहीं छोड़ती । इसी प्रकार हम लोग
भी कभी नहीं मरेंगे अर्थात हमारा प्रेम चिरंतन है, इसलिए हम
अमर हैं ।
सि-जि-कोवा पि
मानताई लुम तिंग- ता
छि-यान कोवा
मानताई - अ यांग- फांग कोवन- ता
भावार्थ: इस पृथ्वी
पर आकाश के नीचे ऐसी कोई जगह नहीं है जहां पर मृत्यु नहीं आती हो । आत्मा को तो
निश्चित रूप से मृतकों के संसार में जाना ही पड़ेगा । उसी प्रकार ऐसी कोई जगह नहीं
है जहां प्रेमी और प्रेमिका के बीच में अलगाव नहीं होगा ।
नोक्ते प्रणय गीत
नोक्ते
जनजाति का निवास मुख्यत: तिरप जिले में है । नोक्ते समाज में प्रेम गीत की
समृद्ध परंपरा है जो लोकमुख में उपलब्ध है:
बबंग अ मेरू
वान मंगबम
त्याते—अ लेता तोवेज
खु- फोवा -अ गलंग लेबाई
रंग –अ मेलप गाना
तंग - अ-अ मेखप गाना
।
(श्री तपन
कुमार एम बरुआ की पुस्तक “नोक्ते लव
सौंग” से साभार )
भावार्थ :प्रेमी अपनी
प्रेमिका को संबोधित कर कहता है- मेरे प्रथम
प्यार ! तुमने जो अपना प्रेमोद्गार व्यक्त किया था, उसकी
पुनरावृति आवश्यक नहीं है । यदि तुम साथ दो तो मैं तुम्हारे साथ स्वर्ग में भी
जा सकता हूं ।
अरुणाचल की जनजातियों में लोकनृत्य की प्राचीन परंपरा है I वे नृत्यों
द्वारा अपनी भावनाएं अकट करते हैं I नृत्य उनके
लोकजीवन में रचे – बसे हैं I अतिवृष्टि को
रोकने, भूत – प्रेत से
मुक्ति, दैवी शक्ति को प्रसन्न करने, भूमि की
उर्वरा शक्ति में वृद्धि और अच्छी फसल, मृतात्मा की
शांति आरोग्य की कामना आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अरुणाचलवासी नृत्य करते
हैं I शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के उपरांत नृत्य के
द्वारा हर्ष प्रकट किया जाता है I अरुणाचली
लोकनृत्यों को पांच वर्गों में विभक्त किया जा सकता है :
(क ) सांस्कारिक
नृत्य –अरुणाचल में सांस्कारिक नृत्यों की प्रमुखता है I परिवार एवं
समाज की सुरक्षा, आरोग्य, फसलों तथा
जानवरों की सुरक्षा आदि के लिए नृत्य किए जाते हैं I अरुणाचल की
अनेक जनजातियों में किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर नृत्य करने की परम्परा है I अनेक
समुदायों में युद्ध नृत्य की भी परंपरा है I
(ख ) त्योहार
नृत्य – प्रदेश में सैकड़ों पर्व – त्योहार
मनाए जाते हैं I त्योहारों के अवसर पर नृत्य – गीतों के
द्वारा उल्लास को प्रकट किया जाता है I इन नृत्यों
में आनंद, उत्साह, उमंग और
मस्ती होती है I नर्तक – नर्तकियां
अपने परंपरागत परिधानों व अलंकारों से सुसज्जित हो नृत्य करते हैं I
(ग ) मनोरंजन
नृत्य – लोगों और अपना मनोरंजन करने के लिए इसकी प्रस्तुति
की जाती है I इसके लिए कोई अवसर निश्चित नहीं है, इसे कही भी, कभी भी पेश
किया जा सकता है I
(घ) नृत्य नाटिका
– यहाँ नृत्य नाटिका की परंपरा अत्यंत पुरानी है I इसमें
नर्तकगण किसी पौराणिक कथा का वचन करने के साथ – साथ नृत्य
भी करते हैं I कथा में नैतिक सन्देश छिपे होते हैं I
(च ) मुखौटा नृत्य
– अरुणाचल की बौद्ध धर्मावलम्बी जनजातियाँ धार्मिक
संदेशों को प्रभावशाली तरीके से संप्रेषित करने के लिए विभिन्न जानवरों का मुखौटा
पहनकर नृत्य करती हैं I
विभिन्न आदिवासी समूहों की भूमि अरुणाचल में हजारों लोककथाएँ मौखिक परंपरा
में विद्यमान हैं I इन कथाओं में जीवन के सभी पहलुओं का चित्रण है I रोचकता इनका
प्रमुख गुण है I अधिकांश कथाएँ वन एवं वन्य – प्राणियों
से संबंधित हैं I भूत – प्रेत, अलौकिक वृक्ष, चमत्कारी
जंगल और तालाब, जादुई पत्थर, धूर्त मनुष्य
इत्यादि से संबंधित लोककथाएँ रोचक होने के साथ – साथ
ज्ञानवर्द्धक भी हैं I बाघ और बिल्ली की कथा, जानवरों की
बलि देने की कथा, धूर्त मनुष्य की कथा, गिलहरी की
उत्पत्ति की कथा इत्यादि कथाएँ प्रदेश में खूब लोकप्रिय हैं I मिथक लोकजीवन
की आस्था के प्रतिबिम्ब होते हैं I मिथकों के
आधार पर प्राचीन संस्कृति की व्याख्या की जा सकती है I अरुणाचली
समाज में संसार, पृथ्वी, आकाश, नरक, देवता, राक्षस, मानव, जल, अन्न, पर्वत, सरीसृप, उभयचर आदि की
उत्पत्ति से संबंधित हजारों मिथक प्रचलित हैं I ये मिथक
वाचिक परंपरा में ग्रामीण लोगों के कंठों में विद्यमान हैं I
अरुणाचल के गाँवों में निवास करनेवाले लोगों के मुख से अनायास ही
लोकोक्तियाँ निकलती रहती हैं I इनके मूल में
कोई गंभीर अनुभव, कोई घटना अथवा कोई प्रचलित कथा अवश्य होती है I कम शब्दों
में अधिक भाव राशि को समेटे ये लोकोक्तियाँ लोगों का पथ प्रदर्शन करती हैं, बुरा काम
करने से रोकती हैं तथा सुमार्ग पर चलने को प्रेरित करती हैं I
कुछ अरुणाचली
लोकोक्तियाँ
ईदु मिश्मी लोकोक्तियाँ
# एक्को – बे एम्बु
आगु यागो लापरामी – पत्नी और बच्चों को गुप्त बात मत बताओ I
# याइकु में
इजी नारू – चा लायी – महिलायें
अफवाह फैलाती हैं I
# नान्यी – जी थेको – को, नाबा जी
थेनना – माता जैसी पुत्री, पिता जैसा
पुत्र I
तागिन लोकोक्तियाँ
# न्यी कचिंग
में ओ – लो लेबिंग, सेमिक ओ – लो त्यास – दुर्भाग्य
अकेले नहीं आता I
# बेने लोलेम
मक्पो केकेला – चरित्रहीन नारी सबकुछ खो देती है I
# न्यी एमा
देदे सोसोला हेक्के यांगोम यानेगे पोसीक – गरीब
सर्वत्र असहाय होता है I
मोम्पा लोकोक्तियाँ
# लपना खेमा
सुरंग जंग, मलप खेमा सुरंग मेय – शिक्षा आदमी
को बुद्धिमान बनती है I
# गाले – गाले जेना
बौगपोल ल्हासा कोरयोंगे – धीरे – धीरे और
निरंतर प्रयास करने से
खच्चर भी
ल्हासा पहुँच जाता है अर्थात निरंतर प्रयत्न करने से लक्ष्य की प्राप्ति निश्चित
है I
# मेंतो
येंगपुक दुईका ये मयेन्य, गूती अरंग दुरंग धा फेयेनवेंगे – समय व ज्वार
किसी की प्रतीक्षा नहीं करते I
वर्तमान पता: आवास संख्या-1091, टाइप-5, एन एच – 4 , फरीदाबाद-121001.
मोबाइल- 9868200085, ईमेल:- bkscgwb@gmail.co
[जनकृति पत्रिका में प्रकाशित आलेख]
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