मिथिला के लोकगीत में प्रतिबिम्बित मैथिल स्त्री के स्वरूप: प्रियंका कुमारी
मिथिला
के लोकगीत में प्रतिबिम्बित मैथिल स्त्री के स्वरूप
प्रियंका कुमारी शोधार्थी, हिन्दी विभाग, पांडिचेरी विश्वविद्यालय. पुदुच्चेरी
लोकगीत
लोकगीत का शाब्दिक अर्थ
है- अपार जनसमूह द्वारा गाया जाने वाला वह जनसाघारण गीत ,जिसे एक क्षेत्र
विशेष के लोग अपनी हृदयगत मनोभावनाओं के उद्दगार के लिए गाते हैं।लोकगीत एक ऐसी
सुरीली मनोभिव्यक्ति है,जो हमारे अवचेतन मन के उद्दगार को
चेतन रूप प्रदान करती है। लोकगीत एक ऐसी सुरमयी विधा है, जिसके
माध्यम से मनुष्य अपने हृदय के हर्ष–विषाद, शोक-भय, शौर्य-प्रशस्ति, वंदना-लाचारी
इत्यादि भावनाओं को व्यक्त करती है। लोकगीत अत्यन्त ही सुरीली, मधुर और मनोहर होती है। लोकगीत प्रकृति का उद्गार होता है। साहित्य की
छंदबद्धता एवं अलंकारों से मुक्त रहकर यह मानवीय संवेदनाओं के संवाहक के रूप में
माधुर्य प्रवाहित कर हमें तन्मयता के लोक में पहुंचा देता है। लोकगीत के विषय,
जनसाधारण की सहज संवेदना से, जुडे हुए होते हैं। इन गीतों में
प्राकृतिक सौंदर्य, सुख-दुःख और विभिन्न संस्कारों और
जन्म-मृत्यु को बड़े ही हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। किसी देश की
यथार्थ आत्मा का परिचय वहाँ के लोकगीतों से ही मिलता है।इसके अध्ययन
के बिना किसी देश की सभ्यता- संस्कृति,धर्म-नीति,रीति-रिवाज,कला-साहित्य,सामाजिक
अभ्युदय तथा आकांक्षाओं का सूक्ष्म अवलोकन नहीं हो सकता। लोकगीत में कृतिमता नहीं
होती। लोकगीत का निवास-स्थान लोककण्ठ है। लोकगीत का क्षेत्र ,विशेषकर प्रकृति से,
प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।इसलिए इसे प्रकृति का उद्गार कहा जाता है। इन गीतों में
छन्द योजना का नहीं,वरन्, लय का माधुर्य होता है।लोकजीवन को सदैव
रससिक्त करते रहने की अदभुत क्षमता लोकगीतों में विद्यमान होती है।लोकगीत एक ऐसी
शैली है जो विविघ भाषाओं, उपभाषाओं, बोली
आदि में गायी जाती है;परन्तु क्षेत्रियता के कारण लोकगीत के
बनावट, लय और सुरताल में व्यापक भिन्नता दृष्टिगत होती है। लोकगीत
किसी कालविशेष या कविविशेष की रचनाएं नहीं हैं। लोकगीत को समयानुकूल और
परिवेशानुकूल गाया जाता है।
लोकगीत को परिभाषित
करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी लिखते हैं, “लोकगीत में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियां गाती हैं, फसलें गाती हैं। उत्सव, मेले और अन्य अवसरों पर मधुर कंठों में लोकसमूह लोकगीत गाते हैं।“
भारतीय लोकपरंपरा में लोकगीत
का सर्वाधिक महत्व है। लोकगीत की परंपरा मुख्यत:
ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लक्षित होती है। लोकगीत महिलाओं में सर्वाघिक लोकप्रिय होती
है। इसीलिए लोकगीत को अघिकांशत: महिलावर्ग ही गाया करती हैं।
सदियों से समाज द्वारा दबे-कुचले महिलाओं ने, सामाजिक दंश,अपमान,घर-परिवार के
तानों,जीवन-संघर्षों से जुड़ी आपा-धापी को अभिव्यक्ति देने के लिए, लोकगीतों का
सहारा लिया। महिलाओं ने, लोकगीत को ज़िन्दा रखने के लिए, महत्वपूर्ण योगदान दिया
है। चूँकि लोकगीत ग्रामीण पृष्ठभूमि की ऊपज होती
है, इसलिए यह
ग्रामीण स्त्रियों का गहना भी होता है। ग्रामीण स्त्री का एक ऐसा विशाल जन
समुदाय; जो अशिक्षित हैं;जिन्हे न तो
ज्ञान का दीपक है; न ही वाणी की स्वतंत्रता; जिनकी स्वतंत्र चिंतन ओर भावनाएँ प्रबुद्धों से किंचित
कम नही हैं।इनकी भावनाएँ कलम-कागज के रूप में नही, बल्कि
लोकगीतों के द्वारा मधुर कण्ठों से प्रबल वेग में फुट पड़ती है।उस सुरीली संगीत के
सरगम में, इनके अन्दर की दमित कला, कौशल
और भावनाओं की प्रबल धाराएँ उमरती, घुमरती प्रवाहित होती
हैं।
मिथिला के लोकगीत
बिहार के मिथिलांचल में लोकगीत अत्यधिक
प्रसिद्ध है। यहाँ की सोंधी मिट्टी की महक, प्रसिद्ध लोकगीत
गायिका विंध्यवासिनी देवी की सुरीली कंठ से आती है। वर्तमान युग में, मिथिलांचल की शारदा सिन्हा,
लोकगायिका की अन्यतम उदाहरण है। इनकी अमृतमयी सुरीली कंठ से निश्रित
गीत- पुत्र-जन्म संस्कार,मुंडन संस्कार,उपनयन संस्कार, विवाह
संस्कार, पर्व- त्योहार,ऋतु,संयोग-वियोग,जीवन-संघर्ष आदि विषयों पर आधारित गीत, श्रोता को
भावविभोर कर सकने में सक्षम है।
मैथिली लोकगीत, मिथिलांचल के स्त्रियों की मनोगत भावनाओं का दर्पण है। इनके संगीत में
पुंससमाज द्वारा वंचित स्त्री-अधिकार, स्त्रीवर्ग के प्रति
उनकी नैतिक वर्वरताएँ , स्त्री-योनि में जन्म लेने की पीड़ा,
उनकी प्रतिभा को नही पनपने
देने के कचोट प्रतिबिम्बित होते हैं।
इन विविध स्त्री-विषयक गीतों में, पुरुष समाज से प्राप्त, स्त्री जीवन के विविध
अवस्थाओं- गर्भावस्था, बाल्यावस्था, युवावस्था,
वृद्धावस्था के, संयोग-वियोग,सुख-दुख,प्रेम-भक्ति, व्रत-त्योहार,
हास-परिहास, क्रोध-भय इत्यादि के चित्र
उपस्थित होते हैं।
मैथिली संस्कृति की
परंपरागत धारा को अक्षुण्ण रखने का बहुत बड़ा श्रेय लोकगीतों को प्राप्त है।इस
क्षेत्र की समग्र सांस्कृतिक चेतना का सुस्पष्ट और सजीव चित्र लोकगीतो में
विद्यमान है। मैथिली लोकगीत मिथिलांचल के चंपारन, दरभंगा,
पूर्वी मुंगेर, भागलपुर, पश्चिमी पूर्णिया और मुजफ्फरपुर के पूर्वी भाग के ग्रामीणों द्वारा गाए
जाते हैं। सोहर, जनेऊ के गीत, संमरि,
लग्न गीत, नचारी, समदाउनि, झूमर, तिरहुति, बटगमनी, फाग,
चैतावर, मलार, मधु
श्रावणी, छठ के गीत, स्यामाचकेवा,
जट-जट्टिन, बारहमासा, छैमासा,चौमासा आदि, यहाँ
के प्रमुख लोकगीत हैं। कजरी, सोहर, चैती,
लंगुरिया आदि लोकगीतों की प्रसिद्ध शैलियाँ हैं।
मिथिला
के प्रमुख लोक गायक
उदित नारायण झा,शारदा
सिन्हा,स्वर्णलता झा,रश्मिरानी,गोविन्द,प्रेमसागर, मैथिली झा,विजय सिंह,हरिनाथ
झा,हेमकान्त झा,सुरेश पंकज,पूनम मिश्रा,अंजु, नीतु पाठक आदि मैथिली लोकगायक हैं।
मैथिली
लोकगीत का वर्गीकरण
मिथिला के लोकगीत को मुख्यतः सात भागों में
विभक्त किया जा सकता है-
1. संस्कार गीत
2. भक्ति गीत
3. ॠतु गीत
4. गाथा गीत
5.
पर्वगीत
6.
जातीय गीत
7.
व्यवसायिक गीत
1.संस्कार गीत
संस्कार गीत जन्म-संस्कार, मुंडन-संस्कार, उपनयन-संस्कार, विवाह- संस्कार आदि के शुभ अवसर पर गाये जाते हैं।
जन्म
संस्कार गीत
गर्भाधान के पूर्व से
लेकर शिशुजन्म के पश्चात तक के कई जन्म संस्कार गीत हैं। इनमें सोहर प्रमुख हैं।
सोहर मिथिलांचल का एक प्रसिद्ध लोकगान है।सोहर गीत की प्रमुख शैलियाँ हैं- पुत्रकामना संबंधी सोहर, जन्मोत्सव
संबंधी सोहर, धार्मिक सोहर, हास्य-परिहास सोहर।
पुत्रकामना
संबंधी सोहर
मिथिलांचल की संस्कृति
में ही नही अपितु भारतीय संस्कृति में विवाहोपरान्त बहु के ससुरालवालों का प्रथम
उदेश्य ‘पुत्ररत्न की प्राप्ति’ होती है। यदि स्त्री
नि:संतान हो, तो वह ससुराल में पति, ननद
और सास के ताने-उलाहने और व्यंग सुनने को विवश होती है।
प्रस्तुत गीत में
सन्तानहीन और तिरस्कृत स्त्री का कारुणिक चित्रण हुआ है।उसकी सास, ननद और गोतनी,
उसे बाँझिन कहती है और पग-पग पर अपमानित करती है।इससे ऊबकर वह, पुत्ररत्न की
प्राप्ति हेतु, अयोध्या जाकर सरयू में स्नान कर, देवता की आराधना करने का संकल्प
करती है।
“सुनु सखि अजोधा जाएब, सरजू नहाएब रे।
ललना ,सरजू बसथू गोसाउनि ,हम किछु माँगब रे।।
काहु घर देल दुई चार , काहु
घर दस पाँच रे।
ललना ,मोर दिस धुरियो न ताकए , हमरो कौन गति रे।।
सासु के मारल एक दिन ,ननदो न दुलारल रे।
ललना, भइँसुर चलल परिछाँही ,तै राम बेमुख रे।।
सासु के आरती उतारब , ननदो गाल चुमब रे।
ललना भइँसुर सीरी
जगरनाथ,
पुत्र फल पाएब रे।। “
जन्मोत्सव
संबंधी सोहर
प्रस्तुत गीत में पति- पत्नी के
बीच व्यंग्य-विनोद वार्त्तालाप का उल्लेख हुआ है। पत्नी अपने पति से मनोवांछित
वस्त्राभूषणों की माँग करती है।उसकी बातें सुनकर पति व्यंग्य करते हुए कहता है-एक
तो तुम कोयल जैसी काली हो और दूसरी नि:संतान। तुम्हें य़े वस्त्राभूषण कैसे अच्छे लगेंगे ?पत्नी अपने पति की बातें सुनकर मर्माहत हो जाती है। प्रभु की कृपा से उसे
पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है।संतानवती होने पर, मातृत्व के गौरव से, उसकी
प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। पुत्रोत्पति का समाचार सुनकर पति वस्त्राभूषण लेकर उसके
पास पहूँच जाता है। अपमानित परन्तु स्वाभिमानिनी
स्त्री, व्यंग्य और अभिमान के साथ, कहती है- मैं इन वस्त्राभूषणों की भूखी नहीं
हूँ; मुझ जैसी काली कोयल को ये वस्त्राभूषण कैसे अच्छे लगेगें ?ये वस्त्राभूषण तुम्हारी माँ और बहनें पहनेंगी। इस गीत में पति के तुच्छ
सोच, बीमार मानसिकता और अभद्र व्यवहार से क्षुब्द मानिनी
स्त्री के हृदय की मार्मिक वेदना फूट पड़ी है।
“केबरा लागल धनि
ठाढ़ भेलि, कि पिया से अरज करु रे।
ललना दियौ पिया दक्षिनक
चीर, कि आरु नकबेसरि रे।।
एक धन कारी
कोइलिया,दोसर कोखि बालक नहिं रे।
कोना तोरा सोभत दक्षिनक
चीर, आरु नकबेसरि रे।।
एक पार देलनि
एहरिया,दोसरे देहरिया रे।
ललना,तेसरहिं होरिला
जनम लेल,सब मोन हरकित रे।।
केबरा लगल पिया ठाढ़
भेल,कि धनि से मिनती करु रे।
लिअ धनि दक्षिनक चीर, कि आरु नकबेसरि रे।।
बेसर परहरत तोहर
माय,आरु बहिन लोक रे।
ललना, हम नहिं बालक
भूखन, बालक राम देलनि रे।।
एक त हम कारी कोइलिया,
दोसर कोखि बालक नहिं रे।
ललना,हमरा कोना सोभत दक्षिनक चीर, आरु नकबेसरि रे।।“
धार्मिक
सोहर
धार्मिक सोहर में भगवान
कृष्ण और राम के जन्म की कथा और उनके जन्म से पूर्व देवकी एवं कौशल्या की वेदना को
मार्मिक ढंग से गीतों के शब्द में पिरोया जाता है। धार्मिक सोहर उपनयन, मुण्डन एवं विवाह संस्कार में गाया जाता है।
प्रस्तुत गीत में भगवान
कृष्ण के जन्म से पूर्व देवकी के पुत्रकामना को स्वप्न के रुप में दिखाया गया है।
“आजु मोरा देवकी
नहयली कि अपन घर गेली रे।
ललना रे, करू बसुदेव सँ संग, कि जन्म सफल हेत रे।।
पहिल सपन देवकी देखल, पहिल पहर राति रे।
ललना रे, छोटी मोटी अमुआ के गाछ, कि फले-फूले लुबधल रे।।
दोसर सपन देवकी देखल, दोसर पहर राति रे।
ललना रे, देखल केराक घौर, दुअरे बिच टांगल रे।।
तेसर सपन देवकी देखल, तेसर पहर राति रे।
ललना रे, देखल बांसक बीट, दुअरे बिच गाड़ल रे।।
चारिम सपन देवकी देखल, चारिम पहर राति रे।
ललना रे, पौरल छांछ भरि दही, आंचर तर झांपल रे।।
चुप रहू बहिन देवकी, आओर सहोदर हे।
बहिनी हे सब क्षण अछि
भगवान,
कृष्ण जन्म लेल रे।।”
हास्य-परिहास
सोहर
प्रस्तुत गीत में
ननद-भाभी में परस्पर चलनेवाले हास्य-परिहास का वर्णन है।ननद, भतीजे के जन्मोत्सव
पर, भाभी प्रदत्त नथ को अस्वीकार कर, बहुमूल्य बधाई की माँग करती हुई, भतीजे को
उठाकर ले जाती है। भाभी परिहास करती हुई कहती है,” ननद,मेरे
बच्चे को दे दो तथा बधाई स्वरूप अपने भैया को ही ले जाओ।“
ननद परिहास का आनन्द उठाते हुए उत्तर देती है,”भाभी,मुझे
भैया नहीं, भैया का राज चाहिए।“ इसपर भाभी कहती है,”ननद,इस नखड़े को छोड़ो ओर जो मैं दे रही हूँ,उसे लेकर सन्तोष करो।“
“सब गहना में
नथिया बड़ा, महाराजा हो राज।
नथिया ने लेइ ननदिया
हो, महाराजा हो राज।
लए गेलइ बबुआ उठाए हो,
महाराजा हो राज।।
दए जाहु ननदी बउआ हमार,
महाराजा हो राज।
लए जाहु भइया उठाए हो,
महाराजा हो राज।।
नए लेबइ भउजी भइया
उठाए, महाराजा हो राज।
हम लेबइ भइया क राज हो, महाराजा हो राज।।...”
मुण्डण
संस्कार गीत
जन्म के बाल अशुद्ध
होने के कारण ,शिशु के सिर के बाल का मुंडन विधिवत किया
जाता है।
मुण्डण के समय बालक के
बाल को उसकी बुआ या बहन द्वारा आँचल में ग्रहण करने की प्रथा है।
प्रस्तुत गीत में, बालक की बुआ द्वारा वस्त्राभूषण छोड़कर, मात्र एक
पीली साड़ी पहनकर, लापर लेने का उल्लेख हुआ है।यह गीत एक स्त्री के वात्सल्य प्रेम को परिलक्षित करता
है।
‘’ कओन बाबा
छुरिया गढ़ाओल, आओर मढ़ाओल हे ।
कओन देइ लेल जनम केस, होरिलाजी के मूड़न हे ।
पीअर वस्त्र पहिर लेल , पुरइन पात हे ।
ताहि खसत जनम केस, होरिलाजी के मूड़न हे ।‘’
उपनयन
संस्कार गीत
उपनयन संस्कार के
अनन्तर ही बालक के जीवन में भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता
है। इस शुभ अवसर पर गाये जाने वाले गीत को उपनयन संस्कार गीत कहते हैं।
प्रस्तुत गीत में उपनयन
संस्कार हेतु मण्डप-प्रक्षालन के लिए बरुआ(बालक) की बहन पुरस्कार स्वरूप आभूषण तथा
बछिया दी हुई गाय की माँग करती है।इस गीत में एक स्त्री की आर्थिक परतंत्रता प्रतिबिम्बत होती है।
“बाबा दान दिअ
यौ, मटिया कोड़न के इनाम दिअ यौ ।
बाबा दान दिअ यौ, मड़बा निपन के इनाम दिअ यौ ।
गइया जे देलों बेटी
बछिया लगाय,आर किछु दान बेटी,अम्मा
सँ लिअ।....
बाली जे दैलों बेटी
झुमका लगाय आर किछु दान बेटी, भैया सँ लिअ।...‘’
विवाह संस्कार गीत
विवाह के तीन चार दिन पूर्व से लेकर द्विरागमन
के चार-पाँच दिन पश्चात तक विभिन्न चरणों में विवाह संस्कार के गीत गाए जाते हैं।
मिथिला में विवाह की लगभग पचास विधियाँ हैं; इन सबसे सम्बद्ध गीत हैं-
पसाहिनी
गीत
विवाह के पूर्व कन्या तथा वर के प्राकृतिक सौन्दर्य
के निखार के लिए जौ या गेहूँ के आटे,हल्दी,सरसों,तिल, चिरौंजी तथा अन्य
सुगन्धित वस्तुओं के सम्मिश्रण से उबटन बनाकर उनके चेहरे तथा शरीर पर लगाया जाता
है।
प्रस्तुत गीत में, दादी ,माँ, चाची द्वारा,
कन्या तथा वर को, उबटन लगाने की विधि सम्पन्न
करने का, उल्लेख हुआ है।
“कथि कटोरा में
आगर चानन, कथि कटोरा फूलेल।
सोने कटोरा में आगर
चानन,रूप कटोरा फूलेल।
उबटन लगाबथि दादी
सोहागिन,उपर चँदवा तान।।... ...
उबटन लगाबथि अम्मा
सोहागिन,उपर चँदवा तान।।... ...
उबटन लगाबथि चाची
सोहागिन,उपर चँदवा तान।।”
लावा-भुँजाई
गीत
विवाह में लावा भूजने
की विधि बहन सम्पन्न करती है तथा बहनोई आँच लगाता है। बहनोई को हास-परिहास में
गालियाँ भी दी जाती है।इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए बहन- बहनोई को द्रव्य, वस्त्राभूषण,गाय आदि पुरस्कार स्वरूप में, देने की परंपरा है।
प्रस्तुत गीत में लावा
भूजने की विधि सम्पन्न करने के लिए, बहन द्वारा
पुरस्कार स्वरूप, गाय तथा अन्य सामग्री की माँग का, उल्लेख है। यह गीत एक स्त्री की आर्थिक परतंत्रता को
प्रतिबिम्बित करता है।
“दान दिअ बाबा,
मोरा दान दिअ।
भइया क लावा भुजाओन, दान दिअ।।
थारी नहिं लोटा,किछु दान दिअ।
खुट्टा पर बान्हल,धेनु गाय दिअ।।
लावा भूजि खपड़ी, देलक उतारि।
दान दैत काल,किछु लिअ बिचारि।।”
मातृका
पूजा (घृतढारी) गीत
मातृका पूजा में, वर या वधु के सुखी एवं समृद्ध
वैवाहिक जीवन के लिए ,गौरी गणेश तथा सप्त मातृकाओं की पूजा,
उनके माता-पिता द्वारा, मंत्रपूर्वक गृहदेवता
के पास सात गोबर-पिंजुलियों पर, घृत-धारा गिराकर की जाती है।
हिन्दू वैवाहिक पद्धति में, मामा की उपस्थिति में मायके की
साड़ी पहनकर ही, घृतढारी विधि सम्पन्न की जाने की परंपरा है।
प्रस्तुत गीत में
विधि-विधान के साथ मातृका पूजा सम्पन्न करना एक स्त्री के देवी रूप को सर्वोच्च
सम्मान देने की ओर संकेत करता है।
“तिल कुस लिअ
होम करु, मातृका पूजा करु।
अछत दूबि नेबेदिक,सोलहो ठाम धरु।।
गोबर दूबि अनाबिय,रचि के बनाबिय।।
आयल गनपति परल धजा, सोलह पूजा।
बसबरि घीउ ढराय, की करु मातृका पूजा।।”
डहकन
गीत
उत्तर भारतीय विवाह
पद्धति में ऐसी लौकिक परंपरा प्रचलित है कि जिस समय बारातियों को आँगन में मण्डप
पर भोजन कराया जाता है,उस समय वधू पक्ष की स्त्रियाँ डहकन गीत गाती हैं।
प्रस्तुत गीत में, वधू-पक्ष की स्त्रियोँ द्वारा, वर-पक्ष को गाली
देकर, हास-परिहास करने की परंपरा का उल्लेख हुआ है।
“बाबू गारि नइ
हम दइ छी, बेवहार हम करइ छी।
हमर बाबा कुमार, अहाँक
दाइ मँगइ छी।।...
हमर बाबू कुमार,अहाँक
माइ मँगइ छी।।...
हमर भइया कुमार,अहाँक बहिन मँगइ छी।।”
लावा-छिटाई
गीत
लावा-छिटाई विधि में
भाई अपनी बहन के हाथ में धान का लावा देता है और दुलहा दुलहन की अंजलि पकड़कर लावा
बिखेरता है।इस लौकिक विधि का वैदिक संकेत यही है कि बहन जब-जब पितृगृह आयगी,तब-तब
उसकी अंजलि उसी प्रकार भरी जायगी।
प्रस्तुत गीत में वधू-पक्ष
की महिलाओं द्वारा वधू को सम्मान तथा वर एवं वर-पक्ष की महिलाओं का हास-परिहास
किया गया है।
“दाइ लावा
छिरियाउ,बाबू बिछि बिछि खाउ।
बरक काकी आओर कनियाक
काका,सँगहि सुताउ।
बरक मउसी कनियाक मौसा; सँगहि सुताउ।।
बरक माय कनियाक बाबा; सँगहि सुताउ।
बरक बहिन कनियाक भइया; सँगहि सुताउ।
दाइ लावा छिरियाउ,बाबू बिछि बिछि खाउ।।”
कन्यादान
गीत
कन्यादान में, वर के
पिता द्वारा सिन्दूर खरीदने के उपरान्त,कन्या के पिता द्वारा कन्या को जाँघ पर
बिठाकर,माँ द्वारा कन्या के सीथ को झाँपकर कन्यादान किया जाता है। पुंसवादी समाज
में स्त्री मात्र एक वस्तु के रुप में देखी जाती है,जिसका
प्रदान पितृगृह में तथा आदान पतिगृह में होता है।मूक स्त्री का स्वयं का कोई
अस्तित्व नहीं होता है।
प्रस्तुत गीत बहुत ही
कारुणिक है। कन्यादान के समय, पिता का हृदय विदीर्ण होने लगता है।कन्या उन्हें
सान्त्वना देते हुए समझाती है कि, जिस प्रकार आप कुँआ और पोखरा खुदवाये ,लेकिन उनका
उपयोग अन्य लोग कर रहे हैं,उसी प्रकार इस विधि को भी आप सम्पन्न कर दें। इस गीत में
एक स्त्री की सहनसीलता एवं आत्मिक साहस का बोध हो रहा है।
“गेरुअहि काँपय
दूनुहि छतिया,हाथ काँपय तिल कूस हे।
बेटी ले काँपय अपन
बाबा,कोना बेटी करौं तोहें दान हे।।
जहिना आहो बाबा इनरा
खुनाओल,तहिना करु बेटी दान हे।
जहिना आहो बाबा पोखरा
खुनाओल,तहिना करु धिया दान हे।।”
सिन्दूरदान
गीत
कन्यादान के बाद
सिन्दूरदान की विधि सम्पन्न की जाती है। सिन्दूरदान के बाद ही, वर-कन्या को,
विधिवत, पति-पत्नी का सामाजिक पहचान मिलता है।
प्रस्तुत गीत अत्यधिक
मार्मिक है। कन्या कहती है कि उनके पिता वर पक्ष की सम्पन्नता को देखकर लुब्ध हो
गये।अब एकमात्र सिन्दूर के कारण ही, वे उसको अपने घर से विस्थापन कर पतिगृह भेज रहे
हैं।पितृसत्तात्मक समाज में, एक स्त्री का जीवन तीन भागों में विभाजित हो जाता है-
बाल्यावस्था पिता के संग,युवावस्था पति के संग,वृद्धावस्था पुत्र के संग।उसका अपना
कोई स्थायी घर नहीं होता। एक स्त्री को, विस्थापन की सबसे बड़ी पीड़ा, माता-पिता के घर से समूल
उखड़ने पर होती है। एक स्त्री के सम्पूर्ण अस्तित्व का निर्माण उसके पितृगृह में
होता है।अपने माता-पिता से प्राप्त संस्कार एवं संस्कृति के साथ, जब वह पतिगृह
पहूँचती है,तब अभियोजन में अनेक बाधाएँ आती हैं।य़ही बाधाएँ, स्त्री जीवन की सबसे
बड़ी पीड़ा या संत्रास का, कारण होता है।
“कहँगा क
सिनुरहारा,सिन्दुर बेचय आयल हे।
आहे,कहमा के नवे
कामिनि, सिन्दुर बेसाहल हे।।
कओन गामक सिनुरहारा; सिन्दुर बेचय आयल हे।
आहे, कओन गामक नवे कामिनि, सिन्दुर बेसाहल हे।।
केहन निरदय भेल
बाबा,धनहिं लोभायल हे।
एक रे सिन्दुरवा के
कारन,घर सँ निकालल हे।।”
सोहाग
गीत
सिंदूरदान के तुरंत बाद
सोहाग विधि सम्पन्न करने की हिन्दू वैवाहिक परंपरा है। इस विधि में दुल्हन के
परिवार की स्त्रियाँ तथा अन्य रिश्तेदार दुल्हन के सुहाग की कामना करती हैं और उसे
सिंदूर चढ़ाती हैं|
प्रस्तुत गीत में, धोबिन द्वारा सोहाग देने की विधि सम्पन्न करने के बदले, उसे लाल साड़ी देने का उल्लेख हुआ है।
“कौने से पोखरी
खुनाओल, घाट बनाओल हे।
कौने से भरल सेमार, कि राम नहाओल हे।।
दसरथ पोखरी खुनाओल, घाट बनाओल हे।
कोसिला भरथि सेमार, कि राम नहाओल हे।।
धोबिन बेटी अउती,मुड़की बनौती हे।
दियौ गे धिया सोहाग,लाल साड़ी पहिरू हे।।”
समदाउनि
समदाउनि एक प्रमुख
विदाई गीत है। जब लड़की ससुराल जाने लगती है, तो समदाउनि
गाया जाता है जो अत्यधिक कारुणिक होता है। इस गीत की बहुत सी धुनें होती हैं|
प्रस्तुत गीत में
नवविवाहिता वधू के मनोस्थिति की यथार्थ अभिव्यंजना हुई है। विदाई के क्षण, कन्या पितृगृह में, स्वतंत्र एवं निर्वाध रूप से
व्यतीत की गई जीवन शैली को स्मृत कर, करुणाद्र हो जाती है;
साथ ही पतिगृह के कठोर नियम एवं नियंत्रण की परिकल्पना से भयभीत भी।
“जखन जनकपुर सँ
चलली हे सीता, खिड़की में लागल ओहार।
एक कोस गेली सीता दुइ
कोस गेली,तेसरे में फेंकल ओहार।।
नए देखी बाबा नए देखी
नगरी,
नए देखी पोखरी मोहार।
एते दिन छलिए अम्मा के
दुलरुआ,औंटल दूध न सोहाय।
आब हम भेलिअइ पर के
पुतोहिया,मिनती करैत दिन जाए।।”
कोहबर
गीत
कोहबर गीत, विवाह
कर लौटने पर दुलहे के घर पर, कोहबर के समय गाया जाता है। प्रथम मिलन की रात में,
दुलहा-दुलहन को विशेष रूप से सजाये गये
कोहबर में, ननद या भाभी द्वारा हास-परिहास के साथ, सोने के लिए भेजे जाने की
परंपरा है।
प्रस्तुत गीत में
दुलहन, कोहबर में जाने से पहले, दुलहा से वचन लेती है कि, अगर वह उनके पिता से
दहेज नहीं लेने का वचन दें, तो ही वह उनके साथ कोहबर जा सकती है।इस गीत में मैथिल
स्त्री का प्रगतिवादी दृष्टिकोण मुखरित हुआ है।एक स्त्री द्वारा, सामाजिक कुरीति दहेज प्रथा के
विरोध में, उठाया गया यह साहसिक कदम, मैथिल समाज में ही नहीं अपितु विश्वस्तर पर,
प्रशंसनीय है।
“सुनयनि सुनयनि
राम क कोहबर, राम कोहबर केहन होइ हे।
आगु पाछु लिखल आलरि
झालरि,बीचे पान के पात हे।।
पाँच सखि मिलि कोहबर
जाएब,देखि कए हिरदा जुराय हे।
ताहि कोहबर सुतलनि
दुलहा से कओन दुलहा,डेवढ़ी धयने कनियाँ दाइ ठाढ़ हे।
हमरो बाबा सँ परभु दहेज
नहीं माँगब,तखन कोबर हम आयब हे।।”
बेटी-
विवाह गीत
वैदिक काल से ही हिन्दू
विवाह पद्धति में, बेटी- विवाह में, पिता द्वारा पुत्री को, स्त्री-भाग के रुप में, आर्थिक क्षमता के अनुसार,
धन,वस्त्राभूषण तथा अन्य घरेलू वस्तुओं को देकर विदा करने की
प्रथा चली आ रही है। जब विवाहोपरान्त किसी कन्या का निर्वाह पतिगृह में नहीं हो पाता है, तब
उस विकट परिस्थति में अपने जीवन यापन हेतु, वह अपने पिता या भाई से अपना भाग
माँगती है; परिणामस्वरुप उसे अपने माता-पिता तथा भाई से अपमानित
होना पड़ता है। यद्यपि कानून ने
पिता की सम्पत्ति में बेटी के भाग को अनिवार्य कर दिया है, पर
यह कितना सत्य, सार्थक और प्रासांगिक है, प्रस्तुत गीत से अनुभूत किया जा सकता है।
प्रस्तुत गीत में पिता
की सम्पत्ति में बेटी अपने दायभाग का दावा करती है,जिससे पिता रुष्ट हो जाते हैं
और कहते हैं कि, अगर तुम्हारे दावे का मुझे पता होता तो, बचपन में ही किसी जर्जर
नाव में तुम्हें रखकर नदी की धारा में, उस नाव को ढकेल देता।
“लिखिया पतिया
गे बेटी भेजू बाबूजी के पास।
तोहरो कमइया हो
बाबा,मोरा अंसधारी।।
जौं हम जनितौ गे बेटी; होयबो अंसधारी।
ओझरी ओ नइया गे बेटी, दीती
भसिआई ।।”
वस्तुतः एक स्त्री के
लिए पितृगृह और पतिगृह दोनो ही पराये होते
हैं।पुरूषसत्तात्मक समाज में, पुत्री का जन्म होना ही, अभिशाप माना जाता है।
प्रस्तुत गीत में नौ
महीने तक अपने कोख में रखनेवाली जन्मदात्री माँ ही, जब अपनी पुत्री के जन्म से
शोकसंतप्त हो कह सकती है कि, बेटी जिस दिन तुम्हारा जन्म हुआ,उसी दिन से मेरी
आँखों की नींद गायब है और ज्ञान स्थिर नहीं रहता। यदि तुम पुत्र होते, तो घर में
शहनाई बजती। बेटी माँ से पूछती है-माँ,
यदि ऐसी बात थी तो तुमने मुझे जन्म ही क्यों दिया? माँ
उत्तर देती है- यदि मैं पहले ही जान जाती कि बेटी के रुप में तुम जन्म लोगी तो, मैं मिर्च पिसकर पी जाती,जिसकी झाँस से तुम मर
जाती,और बेटी का संताप ही समाप्त हो जाता।
“जाहि दिन आगे
बेटी तोहे अवतार लेल,ताहि दिन भेल उदास हे।
चिन्ता नीन्द हरित भेल
बेटी,थिरो नहिं रहल गेआन हे।।
पुतर जे रहितें बेटी
बजितइ बधवा, धिया केर जनम उदास हे।
कथिले आहे अम्माँ धिया
केर जनम देल, कथिले एतना उदास हे।।
पहिले जे जनितउँ धिया
रे जनम लेत,खएतउँ मरिच पचास हे।
मरिचक झाँस धिया दुरि जाइत,छुटितइ धिया
क संताप हे।।…“
प्रस्तुत गीत में पति-पत्नी
द्रुतकीड़ा खेलते हैं। पति लगातार हारता है। पति पत्नी के परिहास से तिलमिलाकर, पटना
शहर से एक बँगालिन कन्या को दुल्हन बनाकर, पहली पत्नी के सौत के रुप में, अपने घर
ले आता है।पहली पत्नी, अपनी सास से पति की शिकायत करने के पश्चात, पति से क्षमा याचना करते हुए कहती है –आप मेरी छोटी बहन
को अपने छोटे भाई के लिए हरण कर लें, मेरा सर्वस्व ले लें, किन्तु मेरी हरी-भरी
जिन्दगी से सौत को हमेशा के लिए हटा दें।इस गीत में मिथिलांचल की स्त्री की विवशता को उजागर किया गया है।
“पिनल पोतल
कोठरिया,कि अति गह्वर स हो।
ललना,दियरा जरए सारी
रात,कि दुनु पासा खेलब हो।।
जितलऊँ में हाथ क
मुँदरिया,कि कलम कटरिया हो।
ललना जितलहुँ तोहरो
बहिनिया,अपना भइया लागि हो।।
एतना बचन राजा
सुनलनि,सुनहु न पओलनि हो।
ललना चलि गेल पटना
सहरिया, बँगालिन सँ बिआह करु हो।।...
हारलहुँ में हाथ क मुँदरिया,कि कलम कटरिया हो।
ललना हारलहुँ में अपनी
बहिनिया,तोरो छोट भइया लागि हो।।”
स्त्री का जीवन पुरुष
के कारण ही अभिशप्त होता है।यदि कन्या किसी निर्धन परिवार में जन्म लेती है,तो व्यसनी
बूढ़े के हाथ, विवाह के नाम पर ,उसका विक्रय कर दिया जाता है।यदि स्त्री रुपवती होती
है, तो उसके चेहरे पर तेजाब फेंका जाता है।सुख और स्वाधीनता एक स्त्री के लिए शायद
आजन्म मरुस्थल के चमकते रेत में, पानी के भ्रम की भाँति है।एक स्त्री की पीड़ा कोई
स्त्री ही समझ सकती है। माँ एक बार पुन: बेटी के रूप में स्वयं को जीती है। वह, अपने
संपूर्ण जीवन के य़थार्थ कटु अनुभव की काली छाया को, अपनी पुत्री के भावी जीवन में किंचित
पड़ने नहीं देना चाहती है।माँ,एक स्त्री होने के कारण,अपनी कन्या के लिए एक ज्ञानी
वर की अपेक्षा करती है,जो कम से कम उसके मनोभाव को समझ सके।
प्रस्तुत गीत में माँ
सूर्य भगवान से प्रार्थना करती है कि विधाता,बेटी को पैदा
ही नहीं करना। अगर बेटी हो भी, तो उसका जन्म निर्धन माँ की
कोख से न हो। अगर संयोगवश निर्धन के घर बेटी का जन्म हो भी, तो
उसे अत्यधिक रुपवती नहीं बनाना। अगर वह अत्यधिक रुपवती हो भी गयी, तो उसे मूर्ख पति नहीं प्राप्त हो।अगर एसा होगा तो उसका जीवन ही कष्टप्रद
हो जाएगा।
“गोर लागु पइयाँ
पड़ सुरुज गोसइयाँ,धीआ के जनम जनि देब।
आरे धीआ के जनम जब देबइ
हे विधाता,निरधन कोखि जनम जनि देब।।
निरधन कोखि जनम जब देबइ
हे विधाता,सुरति अधिक जनि देब।
आरे, सुरति अधिक जब
देबइ हे विधाता,पुरुख मुरुख जनि देब।।”
प्रस्तुत गीत में धनलोलुप
विलासिनी स्त्री की अधैर्य प्रवृत्ति मुखरित हो रही है।इस गीत की नायिका, अपने
पिता से दहेज स्वरुप उस पोखड़ को, जो उसके पिता ने लोक कलयाणार्थ हेतु बनवाया है,
इसलिए माँग रही है ताकि वह अन्य लोगों के समक्ष अपने मायके के ऐश्वर्य का प्रदर्शन
कर स्वयं को गौर्वान्वित अनुभूत कर सके।
“परबत मेघ गरजि
गेल बाबा,पाटन भेल इजोत हे।
कओन बेटी कुमारी हो
बाबा,नव लाख माँगए दहेज हे।।
नव लाख ओसरि नव लाख
बेसरि, नव लाख माँगए धेनु गाय हे।।
कमल हँसए बाबा बिहुँसि
बहुँसि क,सरोबर मारए हिलोर हे।
इहो सरोबर बेटी तोरो
नहिं देबो,गाय पिअत जुरि पानि हे।
सरओर पैसी नहाएब
बाबा,भीड़ सुखाएब नामी केस हे ।
बाट बटोही पुछत
बाबा,बाबा मोरा देल दहेज हे।”
2. भक्ति
गीत
मैथिली लोकगीत में
भक्ति गीत का एक महत्वपूर्ण स्थान है। भक्तिगीत विष्णु,राम, कृष्ण, गंगा, शिव और शक्ति के गुणगान से सम्बन्धित होती है। शिव भक्ति गीत( महेशवाणी,
नचारी), प्राती, साँझ,
गोसाउनिक गीत,भगवती गीत, कीर्तन- भजन आदि भक्ति गीत के प्रकार हैं-
प्राती
प्रात: काल में भक्त
लोग इन गीतों को अपने भगवान एवं देवी को प्रसन्न करने के उद्देश्य से गाते हैं।
प्राती गीत को भैरवी, जाजयन्ती, बिहाग इत्यादि भागों में विभक्त किया सकता है।
प्रस्तुत गीत में
स्त्री के शक्ति रुप का वर्णन हुआ है।
“सभकेर सुधि
अहाँ लै छी हे अम्बे, हमरा किए बिसरै छी हे।
थिकहुँ पुत्र अहींकेर
जननी, से तऽ अहाँ जनै छी हे।।
एहन निष्ठुर किए अहाँ
भेलहुँ, कनिको दृष्टि नहि दै छी हे।
क्षण-क्षण पल-पल ध्यान
करै छी, नाम अहींकेर जपै छी हे।।
रैनि-दिवस हम ठाढ़ रहै
छी, दर्शन बिनु तरसै छी हे।
छी जगदम्बा, जग अवलम्बा, तारिणि तरणि बनै छी हे।।
हमरा बेरि किए ने तकै
छी, पापी जानि ठेलै छी हे।
सभ के सुधि अहाँ लै छी
हे अम्बे..।।”
सांझ
इस तरह के भक्तिपरक लोकगीतों को सांय काल में
गाया जाता है। सांझ गीत में लक्ष्मी एवं शक्ति के विभिन्न स्वरुपों - काली, भवानी, गोसाउनि, ज्वालामुखि,
भगवती इत्यादि की अर्चना की जाती है।
प्रस्तुत गीत में
स्त्री के शक्ति स्वरूप को मुखरित किया गया है।
“सांझे काली, घर दीप लेसि लीअ हे।
गोर लागि लीअ हे।
कथी केर दीप कथीए
सूत-बाती?
कथी केर तेल जरय सारी
राती?
सोना केर दीप, पाटक
सूत-बाती,
सरिसो केर तेल, जरय
सारी राती।”
गोसाउनिक
गीत
गोसाउनिक गीत ऐसे
भक्तिपरक गीत होते हैं, जिसके माध्यम से लोग अपने कुल देवी को प्रसन्न करने का
प्रयास करते हैं।
प्रस्तुत गीत में यज्ञ
के निर्विघ्न सम्पन्न हेतु, गृह देवी पर उनके मनोनुकूल फूल चढ़ाने का उल्लेख हुआ
है। इस गीत में एक स्त्री के शक्ति रुप का संकेत है।
“आगे माइ, कोन फूल हरियर?
कोन फूल पीयर?
कोन फूल सोभैन गिरमल
हार, गे माई।
आगे माइ,बेली फूल हरियर,
चमेली फूल पीयर,
ओरहुल फूल सोभए गिरमल
हार, गे माई।
आगे माइ,से फूल पहिरथु
घरक गोसाउनि,
सदा रहए सहाय गे माई।”
2.4 भगवती
गीत – यह गीत भी गोसाउनिक गीत की तरह कुल देवी को
प्रसन्न करने के लिये गाया जाता है।
“जगदम्बा हे लीअ
ने खबरिया हमार।
जखन जगदम्बा मइया घरसौं
बहार भेली।।
जगदम्बा हे कोढ़िया
काया लय ठाढ़।
जगदम्बा हे लीअ ने
खबरिया हमार।।
जखन जगदम्बा मइया आंगन
सौं बहार भेली।
जगदम्बा हे अन्हरा नयना
लय ठाढ़।।
जगदम्बा हे लीअ ने
खबरिया हमार।
जखन जगदम्बा मइया
दरबज्जा सौं बहार भेली।।
जगदम्बा हे बाँझिन
पुत्र लय ठाढ़।
जगदम्बा हे लिअ ने
खबरिया हमार।।
जखन जगदम्बा मइया गाम
सऽ बहार भेली।
जगदम्बा हे निर्धन धन
लय ठाढ़।
जगदम्बा हे लीअ ने
खबरिया हमार।।”
शिवभक्ति
गीत
मिथिला में सर्वाधिक
गीत शिव को प्रसन्न करने के लिए गाये जाते हैं। शिव भक्ति गीत के तीन प्रकार हैं-
नचारी,
महेशबानी एवं कमरभुआ।
नचारी
नचारी गीत में, भक्त/ भक्तिन नाचकर अपनी लाचारी एवं विवशता को बहुत ही सहज एवं कारुणिक ढंग से
अपने अंतस की आवाज से गाकर देवाधिदेव महादेव को रिझाता/
रिझाती है।
“भोलेनाथ
दिगम्बर दानी, किए बिसरायल छी,दुनियाँ
सऽ ठोकरायल छी।
जे सभ गेल अहाँक द्वार, क्यो नहि भेल विमुख सरकार,
बाबा हमरे बेर से भांग
खाय भकुआयल छी।
बाबा धरब अहाँपर ध्यान, पूजब शिवशंकर भगवान,
बाबा अहाँक चरण मे हम
सब लेपटायल छी।...”
महेशबानी
महेशबानी में भगवान
शंकर का दैनिक जीवन- योगीरुप, पहाड़, वन, जंगल में भटकना,
भूत-प्रेत की माला, सांप को गले में लपेटे
रहना, ताण्डव नृत्य आदि का वर्णन होता है।
प्रस्तुत गीत में, शिवजी
के बारात में बसहा-बैल, चूहा, सांप,
मयूर, बाघ इत्यादि के समागम होने, बारात के
आगमन पर पार्वती की माँ ‘मैना’ द्वारा
पश्चाताप करना, कि अब उनकी बेटी इस भंगेरी, जटावाले, अर्धनग्न जोगी के साथ कैसे जीवन व्यतीत करेगी, इत्यादि का वर्णन हुआ है।इस
गीत में एक स्त्री(माँ) द्वारा दूसरी स्त्री(बेटी) की संरक्षिका होने का संकेत है।
“गे माइ, हम नहि
शिव सँ गौरी बिआहब, मोर गौरी रहती कुमारी।
गे माइ, भूत-प्रेत
बरिआती अनलनि, मोर जिया गेल डेराइ।।
गे माइ, गालो चोकटल, मोछो पाकल, पयरोमे फाटल बेमाइ।
गे माइ गौरी लए भागब, गौरी लए जायब, गौरी लए पड़ायब नइहर।
गे माइ भनहि विद्यापति
सुनू हे मनाइनि, इहो थिका त्रिभुवननाथ।
शुभ-शुभ कए गौरी के
बियाहू,
तारू होउ सनाथ।।”
3. ऋतु
गीत- ऋतु गीत किसी क्षेत्र की भाषा एवं मानवीय संवदेना
की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। प्रेम, करुणा, विरह, अभिसार, नोंक-झोंक,
भक्ति, ज्ञान, इत्यादि
सभी चीजों का समावेश इन गीतों में होता है। ऐसे गीत ग्रामीण जीवन में विभिन्न
ॠतुओं के महत्व को दर्शाने का काम करते हैं। झूमर, तिरहुति,
बारहमासा,छैमासा,चौमासा,
मधु-श्रावणी, फाग, चैतावर,
मलार,जँतसार, कृषि गीत, त्यौहार के गीत, व्रत
संबन्धी गीत आदि प्रमुख ऋतु गीत हैं-
बारहमासा में बारह महीने का वर्णन होता
है।बारहमासा एक प्रबंधात्मक गीत है।इसमें किसी कथा या घटना को आधार बनाकर बारह
महीने में मन पर पड़ते अलग-अलग प्रभावों को अभिव्यक्त किया जाता है।इसमें लौंद का
एक महीना जोड़कर बारह के बजाय तेरह महीने का वर्णन होता है।आषाढ से प्रारम्भ होकर
अगले आषाढ तक जाकर ही यह गीत समाप्त होता है।
प्रस्तुत गीत में, बारह
महीने में स्त्री(कन्या) के विवाह से
सम्बद्ध पुरुष(पिता) के मन पर पड़ते भिन्न- भिन्न प्रभावों को, अभिव्यक्त करता है।
“मिथिलापुरी शोर
भयो हे, जनक प्रश्न ठामे।
चैतहि मास सिया रूप
अनूप,
देखि जनक मनहि मन चूप,..
बैशाखहि मास ऋषि सुदिन
बनाओल,
नग्र हकारि चाप चढ़ाओल,...
जेठहि पत्र फिरहिं सभ
देश,
सुनि हर्षित भेल सकल नरेश,...
पावस मास अषाढ़, सुनि प्रश्न कठिन क्रोध मन भार,...
सावन नृपति जनक अकुलाय, हारि बैसल भूप मान धराय,...
भादव नृपति कहथि कल जोड़ि,जे
इहो धनुष तोड़त बलवान,...
आसिन लछुमन कुदथि मैदान, चुटकी सँ तोड़ब कि धनुष पुरान,...
कातिक धनुष तोड़ल भगवान, अनहद सुद्ध भेल घमसान,...
अगहन राजा सोचल बरियात, कि रथपर लाल ध्वजा फहराय,...
माघहि मास देखि जनक
कयलनि विदाइ,...
फागुन गौना कयल रघुनाथ, कि जानकी कयलनि देस अनाथ,
मिथिलापुरी केर पूरल आस, कि बाबूलाल गाओल इहो बरमास,की मिसान उड़ि गेल।“
चैती(चैतावर)
चैत मास से भारतीय नवसंवत्सर
लगता है। चैती चैत माह पर केंद्रित लोकगीत है। चैत के महीने में गाए जाने वाले इस
राग का विषय प्रेम और प्रकृति होते हैं। चैत श्री राम के जन्म का भी मास है, इसलिए इस गीत की हर पंक्ति के बाद अक्सर रामा शब्द आता है।
प्रस्तुत गीत स्त्री के
श्रृंगारिक भाव से ओत-प्रोत है।
“पिया बिनु सेज
मोरा सून हो रामा,
पिया नहि आये।
फागुन रंग अबीर नीरस
भेल,
सरस वसन्त बीति जइहें हो रामा,
पिया नहि आये।
पापी पपीहा पिया पिया
बोले,
शब्द सुनइते उर कड़कै हो रामा,
पिया नहि आये।
मदन बिना हरि उर बेधय, निसदिन रहत फिकरिया हो रामा,
पिया नहि आये।
रसिक भ्रमर कली पर धाबे, से देखि हिया मोरा साले हो रामा,
पिया नहि आये।
कोकिल कहय धीर धरु
सुन्दरि,
चैत बीच औता श्याम हो रामा,
पिया नहि आये।”
फाग या फगुआ
होली त्योहार फागुन के
महीने में मनाया जाता है।इस अवसर पर गाये जाने वाले गीत को फगुआ या फाग कहा जाता
है। होली गीत के सार्वभौम नायक-नायिका कृष्ण और राधा हैं। फाग के अनेक प्रकार हैं-
होली,
चौताल, डेढ़ताल, तिनताल,
देलवइया, उलारा, चहका,
लेज, झूमर और कबीर आदि ।
प्रस्तुत गीत में संयोग-श्रृंगारसिक्त विहसति स्त्री के मनोरंजक स्वरुप
का वर्णन हुआ है।
“होली कुंजभवन में,
खेलतु हैं नन्दलाल,
लाले श्याम लाल भेली
राधा,
लाले सकल बृजबाल, होली
कुंजभवन में।
लाले रंग सब गोपियन
रंगाय गेल,
लाल भेला भूपाल, होली कुंजभवन में।
अबीर, गुलाल, रंग,
पिचकारी,
सब लेलनि कर सम्हारि, होली कुंजभवन में।...”
मधुश्रावणी
मधुश्रावणी मैथिल नवविवाहितओं का पर्व है। मधुश्रावणी
की विधि विवाह होने के पश्चात आगामी श्रावण-शुक्ल तृतीया को सम्पन्न की जाती है। उस
दिन पति अपनी नवविवाहिता पत्नी को विधिपूर्वक घी के जलते दीपक से दागता है। यदि
दागने पर फफोला निकल आता है, तो वह सौभाग्य- सूचक माना जाता है।
प्रस्तुत गीत में पति अपनी नवविवाहिता पत्नी
को जलती बाती से दागता है,जिसकी पीड़ा से नवविवाहिता पत्नी सहसा चीख उठती है; उसकी आँखों से मोती-सदृश अश्रुबुन्द झरने लगती है।जले हुए स्थान पर चन्दन
घिसकर लगाया जाता है,जिससे उस स्थान पर बड़ा सा फफोला निकल आता है।यद्यपि
मधुश्रावणी को मैथिल नवविवाहितओं के सौभाग्य का पर्व कहा जाता है,तथापि पुरुष
वर्चस्व मैथिल समाज की यह कैसी परंपरा है कि नवविवाहिता पत्नी के अंग को ही दागे
जाने पर सौभाग्य सूचक होता है?यह कैसी विडम्बना है कि स्त्री
की पीड़ा पर ही सौभाग्य की अट्टालिका की नींव निर्मित होती है?
“सखि सभ लेल सँग
साजि हे, सखि कोबर घर में।
नाग बेल लेल हाथ हे, सखि
कोबर घर में।।
पहु संग बैसलि सुकुमारि
हे, सखि कोबर घर में।
पान मुनल निज आँखि हे, सखि कोबर घर में।।
एहल देल कर जाँति हे, सखि
कोबर घर में।
चौँकि उठल सुकुमारि हे,
सखि कोबर घर में।।
चन्दन दियनु लगाय हे, सखि
कोबर घर में।
मोती जकाँ झहरनि नोर
हे, सखि कोबर घर में।।
फुलि गेल चन्द चकोर हे,
सखि कोबर घर में।”
झूमर
झूमर गीत प्रायः श्रृंगारिक
होता है। धुनों के अनुसार, यह गीत कई प्रकार से गाया जाता है। मैथिली क्षेत्र के
झूमरों की खास विशेषता है कि ये अधिकांशतः संदेशसूचक होते हैं; कुछ में स्त्री- पुरुष के प्रश्नोत्तर होते हैं।
प्रस्तुत गीत में आर्थिक
रूप से पुरूष(पति) पर आश्रित स्त्री(पत्नी) का जुझारु स्वरूप प्रतिबिम्बत हुआ है।
“भोर भेलै हे
पिया, भिनसरबा भेलै हे।
उठू ने पलंगिया तेजि, कोइलिया बोलै हे।।
उठबे करबै गे धनी, हम उठबे करबै गे।
दही ने मुरेठबा, हम कलकतबा जेबै गे।।
कलकतबा जयबऽ हे पिया, कलकतबा जयबऽ हे।
हम बाबा के बजाइये कऽ, नैहरबा जयबऽ हे।।
नैहरबा जेबही गे धनी, नैहरबा जेबही गे।
जतबा लागल-ए रुपैया, धैये दहिन गे।।...”
तिरहुत गीत
इस तरह के गीत, उत्सव, संस्कार एवं अनुष्ठानिक
अवसरों पर, चर्खा चलाते हुए, आटा पीसते हुए, सीकी बिनते हुए, खाना पकाते हुए एवं अन्य कार्यों को
सम्पादित करते हुए मैथिली ललना इन गीतों को गाते-गुनगुनाते रहती हैं। किसान- मजदूर,
स्री- पुरुष, ग्वाले, चरवाहे
भी प्यार, श्रृंगार और सौन्दर्य के गीत गाते रहते हैं।
तिरहुत ‘मिलन’ और ‘विरह’ दोनों के गीत हैं। तिरहुत गीत को कई उपवर्गों
में विभक्त किया जा सकता है-
बटगमनी
रास्ते में चलते हुए
गाए जाने वाले गीतों के संकलन को ‘बटगमनी’ कहा जाता है। इस गीत का एक नाम सजनी भी है। ऐसे गीतों में नायिका, मिलन के समय, अपने नायक के अभिसार को दर्शाती है।ऐसे गीत, बहुत ही अपूर्व
अंदाज एवं स्वर में, बिना किसी वाद्य यंत्र के सहारे, गाये जाते हैं। मेले ठेले
में जाती ग्राम्याएँ, नदी किनारे से लौटती हुई पनिहारिनि,
प्राय: बटगमनी गाया करती हैं। इसमें संयोग और वियोग दोनों भावनाएँ होती हैं।
प्रस्तुत गीत में
स्त्री के अभिसारिक श्रृंगारिक स्वरूप का चित्रण हुआ है।
“पिअबा जे कहि गेल
जेठ मास आयब,
बीति गेल मास अषाढ़ सखि।
बाट रे बटोहिया कि
तोंही मोर भइया,
हमरो समाद नेने जाउ सखि।
हमरो समदिया भइया पिया
जी केँ कहि देब,
धनी भेल अलप बएस सखि।...”
4.गाथा
गीत
आल्हा,भरथरी,जट-जट्टिन, सामा-चकेवा,सल्हेस आदि मिथिला के प्रमुख लोकगाथा गीत हैं।
सामा-चकेवा गीत
सामा-चकेवा गीत एक
खेल गीत है, जो कार्तिक शुक्ल सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा तक
खेल में गाया जाता है। स्यामा बहन और चकेवा भाई के अतिरिक्त इस खेल में चंगुला सतभइया,
खंडरित्र, झाँझी, बन-तीतर,
कुत्ता और वृंदावन नामक छह और पात्र हैं।
प्रस्तुत गीत में भाई-बहन के विशुद्ध प्रेम को
उजागर किया गया है। इस गीत में पुरुष(भाई) की रक्षा हेतु स्त्री(बहन) का वीरांगना
स्वरुप मुखरित हुआ है।
“हम्मर भइया
कइसे आबय?
हाथी पर बइसल आबय,
पान ठोर रंगैत आबय,
रुमाले मुह पोछैत आबय,
कंघीये केस थकरैत आबय।।
चुगिला भरुआ कइसे आबय?
गदहा पर बइसल आबय,
कोइले ठोर रंगैत आबय,
खापड़ि मुह पोछैत आबय,
झारुये केस थकरैत आबय।।
हमर भउजो कइसे आबय?
पालकी बैसि हँसैत आबय,
सेनुर मांग करैत आबय,
अयना मुह देखैत आबय।...
जट- जट्टिन
जट- जट्टिन एक अभिनय
गीत है। जट एक तरफ और जट्टिन दूसरी ओर सज-धजकर खड़ी हो जाती है। दोनों ओर प्रधान
पात्रों के पीछे पंक्तिबद्ध स्त्रियाँ खड़ी हो जाती हैं। इसके बाद जट -जटिन का प्रश्नोत्तर,
गीत के माध्यम, से प्रारंभ होता है। ये गीत शरद श्रृतु में गाए जाते हैं।इस गीत
में आर्थिक रुप से पति पर आश्रित एक स्त्री(पत्नी) के दैनिक जीवन-संघर्ष का चित्रण
हुआ है।
“सिनुरा जखन
कहलियौ रे जटा,
सिनुरा किए ने लयले रे?
सिनुरा जखन अनलियौ गे
जटनी,
कोठी पर कऽ धयले गे?
हरि-हरि बाली समैया
अभगली।...
नथिया जखन कहलियौ रे
जटा,
नथिया किए ने गढ़ौले रे?
नथिया जखन गढ़ौलियौ गे
जटनी,
नाकक भूर मुनौले गे।
हरि-हरि बाली समैया
अभगली,
नथिया कोना पहिरते गे?
5. पर्वगीत
होली, दीपावली,
छठ, तीज, जिउतिया,
रामनवमी, जन्माष्टमी,
जुडिशीतल, वटसावित्री, नागपञ्चमी,
दुर्गापूजा आदि, मिथिला के
प्रमुख 'पर्वगीत' हैं।
छठ के
गीत
छठ के गीत, सूर्यषष्ठी
व्रत (कार्तिक शुक्ल षष्ठी) के उपलक्ष्य में गाए जाते हैं। कहीं- कहीं चैत्र शुक्ल
षष्ठी को भी यह व्रत पड़ता है। छठ के गीत पूर्णत: धार्मिक और सौभाग्य के सूचक होते हैं।
प्रस्तुत गीत में स्त्री के धार्मिक आस्था को प्रदर्शित करता है।
“अंगना में
पोखरि खुनायल।
छठि मइया अयतन आइ।।
दुअरा पर तमुआ तनायल।…
अँचरा सऽ गलिया बहारब।…
केरबा के आनब डाला भरि।
तै पर पियरी ओढ़ायब।…
हथिया पर कलशा बैसायब।
तै पर दीया जगमगाय।…”
6. जातीय गीत
मिथिला के विभिन्न क्षेत्रों की विविध जातियाँ
मनोनुकूल अपने ही गीत गाती हैं, जिन्हें 'जातीय गीत' कहा जाता है। जातीय गीतों में श्रमिक
वर्ग के गीत होते हैं।इन गीतों में जातीय भावनाएँ प्रतिबिम्बित होती हैं।इस गीत से
श्रमिकों का शारीरिक थकान दूर होता है;उनका मन बहलता
है।संथाली-गीत,नेपाली गीत,धाँगड़ों के गीत आदि जातीय गीत के उदाहरण हैं।
धाँगड़ों के गीत
धाँगड़ों के गीत कृष्णलीला
से सम्बन्धित होते हैं।इस गीत के बोल अवसरानुकूल बदल जाते हैं।
प्रस्तुत गीत में धाँगड़
जाति के कुछ लोगों द्वारा माँ-बाप तथा कूल परिवार को त्यागकर एक नृत्य दल बनाने,दल
के प्रत्येक सदस्य द्वारा कृष्ण के विभिन्न नामों जैसे गोपाल,मोहना,किश्ना,शाम आदि
रखकर, पौराणिक यमुना नदी के किनारे पहूँचकर, कृष्ण लीला करने का उल्लेख हुआ है।
“कौन बने किश्ना,
बँसिया बजावे,
कौन बने मोहना, गइया
चरावे?
गोपाल बेटा हाम्रा
बोलाए,
नाम धरि शाम-सुन्नर,
हाम्रा बोलाए।
बाप माई कूल परिवारे,
सब छोड़ि किश्ना, एलूँ
जमुना किनारे।”
7. व्यवसायिक
गीत
राज्य में विभिन्न व्यवसाय
के लोग अपना कार्य करते समय जो गीत गाते जाते हैं उन्हें ' व्यवसायिक गीत' कहते हैं। उदाहरणार्थ – कृषि कार्य
करते समय ‘कृषि गीत’, गेहूं पीसते समय ‘जँतसार’, छत की ढलाई करते समय 'थपाई' तथा छप्पर छाते समय 'छवाई'
और इनके साथ ही विभिन्न व्यावसायिक कार्य करते समय 'सोहनी, 'रोपनी', आदि व्यवसायिक
गीत कहलाते हैं।
जँतसार
जँतसार गीत को आँटे की
चक्की पीसते समय स्त्रियाँ गाती हैं। यह गीत अत्यधिक कारूणिक होता है।
प्रस्तुत गीत में
सास-ननद की निर्दयता तथा बाल-विवाह के कारण एक स्त्री के पीड़ा का उल्लेख हुआ है।इस
गीत में एक बालिका-वधू चंगेरीभर गेहूँ लेकर चक्की पर पीसने बैठती है।हमदर्द
पड़ोसिन पूछती है-‘ओ,सुकुमारी किस पत्थरदिल सास ने
तुझे चंगेरीभर गेहूँ दिया है तौलकर? किस ननद ने तुझे अकेली
नौ मन की चक्की चलाने को भेजा है? हाय-हाय! चक्की का हत्था पकड़कर,झमाई हुई निहुरीसी, घूँघट के
अन्दर ही रोती है,छोटी गुड़िया जैसी दुल्हन....।
“के तोरा देलकउ,
सुन्दरि, दस सेर गेहुआँ?
के तोरा भेजलकउ, एकसरि जँतसारे-ना-कि?
कौन रे निदरदो के, तेहुँ रे पुतौहिया?
कौन रे मुरुखवा-
पुरुखवा, तोर भतार ना कि?...”
उपसंहार
मिथिला एक महान
सांस्कृतिक क्षेत्र है, जहाँ लोक गीतों की परम्परा पवित्र गंगाजल की धारा के समान प्रवाहमान है। मिथिला
में असंख्य लोकगीत अनादि काल से गाये जा रहे हैं। इनका संचार एक पीढ़ी से दूसरी
पीढ़ी में सामान्यतया मौखिक परम्परा द्वारा होता रहा है। मिथिलांचल के लोकगीतों
में यहाँ की शिक्षित-अशिक्षित, भोली, हँसमुख,चंचल, गर्विली, स्वाभिमानिनी,
त्यागिनी, पीड़िता और समाज के संत्रास को
झेलती स्त्रियों के जीवन-स्तर की संपूर्ण संवेदनाओं की अनुभूति होती है।भूमंडलीकरण
के इस युग में लोकगीतों में वर्णित स्त्रियों का
यह संयोग-वियोग मात्र मिथिलांचल के स्त्रियों की ही संवेदना नहीं है, बल्कि
विश्वस्तरीय स्त्री-समाज की है। अन्तत: यही कहा जा सकता है कि ये लोकगीत केवल लोकगीत
न होकर सार्वभौमिक सर्जनता, मानवीय सृजनशीलता के सार्वजनिक
प्रतिमान हैं।
संदर्भ सूची-
1. मैथिली
संस्कार गीत,श्री राधा वल्लभ शर्मा,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद,पटना।
2. फणीश्वरनाथ
रेणु के उपन्यासों में लोकसंस्कृति,डा. हरीश कुमार शर्मा,जास्मिन
पब्लिकेशन,दिल्ली।
3. www.kavitakosh.org
4. विकीपिडिया
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धन्यवाद