पंडवानी की वेदमती और कापालिक शैलियों का नया अध्ययन: पूजा रानी


पंडवानी की वेदमती और कापालिक शैलियों का नया अध्ययन
पूजा रानी
पी-एच.डी.(हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग)
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा.
इमेल-- pooja.mlpawar@gmail.com
                                                                                                               
वर्तमान में हर चीज़ के विकास को मापने के पैमाने बदल चुके हैं. जो चीज़ जितनी मूल्यवान और अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त होगी उसको उतना ही विकसित माना जाता है. पंडवानी भी ‘विकास’ के इन पैमानों में फिट बैठ रही है. छत्तीसगढ़ की यह लोकगाथा आज बाज़ार के मुताबिक बदल चुकी है. बदलाव ज़रूरी भी है और लाज्मी भी पर ‘मूल्य’ के चक्कर में ‘मूल’ को बदलना विकास कहलाएगा या ह्रास यह अध्ययन का विषय है.
विकास की प्रचलित वर्तमान मान्यताओं के अनुसार अपने चरम पर पहुँच चुकी और कला जगत में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर शीर्ष पर विराजमान पंडवानी के स्वरुप और उसकी प्रस्तुति-प्रक्रिया को लेकर विवाद आज भी शांत नहीं हुआ है. सर्वविदित धारणा के अनुसार ‘वेदमति’ और ‘कापालिक’ पंडवानी की दो धाराएँ हैं. कुछ विद्वानों के अनुसार पंडवानी की वह शैली जो पूर्णत महाभारत पर आधारित है और वेदसम्मत है, वह शैली वेदमती कहलाती है तथा जो शैली वाचिक परंपरा और स्मृतियों पर आधारित है, साथ ही जिसमें छत्तीसगढ़ के मिथक भी अनायास जुड़ गए हैं, वह कापालिक शैली है.
इसमें संदेह नहीं है कि पंडवानी की इन दोनों शाखाओं का अस्तित्व था. प्रारंभ में पंडवानी का स्वरुप पूर्णत: वाचिक अर्थात कापालिक शैली पर आधारित था जिसे गोंड जनजाति की उपजातियाँ ‘परधान’ और ‘देवार’ पूरे छत्तीसगढ़ में घूम-घूम कर गया करते थे. इस विषय में निरंजन महावर भी कहते हैं कि “वास्तव में पंडवानी परधान गोंडों की महाभारत से सम्बंधित गाथा का नाम है. यह गाथा वाचिक परम्परा में है. वे गाथाएँ जो वाचिक परंपरा अथवा स्मृतियों में हैं, उन्हें छत्तीसगढ़ में कापालिक परम्परा कहते हैं.”[i] किन्तु 20वीं शताब्दी के शुरुआत में झाडूराम देवांगन ने थोड़े बहुत अक्षरज्ञान की वजह से सबल सिंह चौहान के महाभारत आधारित ग्रन्थ (जो अवधी में है) जिसे ‘गुटका’ भी कहा जाता है, का अध्ययन किया और पंडवानी के विकास के दूसरे दौर का सूत्रपात किया. इसके बाद पंडवानी की कापालिक और वेदमती, दो धाराएँ बनीं. किन्तु वर्तमान में पंडवानी लोकगाथा के विकास का तीसरा दौर प्रारम्भ हो चुका है जिसमें इन दोनों धाराओं का समन्वय देखा जा सकता है. किन्तु फिर भी अधिकतर विद्वानों और कलाकारों द्वारा इन दो धाराओं के बीच आज भी विभाजन रेखाएँ खींची जा रही हैं जो की बिलकुल भी तर्कसंगत नहीं है.
भिन्न-भिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं. किसी का मानना है कि मंच पर बैठकर गयी जाने वाली शैली वेदमती है और खड़े होकर गयी जाने वाली शैली कापालिक है, और इसी तरह वेदमती को पुरुषों के लिए और कापालिक को स्त्रियों के लिए उपयुक्त माना गया है. कई विद्वानों ने वेदमती और कापालिक शाखा के गायकों को भी बाँट दिया है. वेदमती शाखा में झाडूराम देवांगन तथा पूनाराम निषाद को प्रमुख कलाकार के रूप में रखा गया है तो कापालिक में तीजन बाई को स्थापित कर दिया दिया गया है, जबकि आज पंडवानी जिन-जिन कलाकारों द्वारा प्रस्तुत की जा रही है वह उनके स्वयं के द्वारा विकसित अपनी-अपनी शैलियाँ हैं जिनमें ‘वेद’ और ‘लोक’ दोनों का सामंजस्य है. डॉ. पी.सी. लाल यादव का मत है कि गायन मुद्रा के आधार पर पंडवानी की शैलियों का निर्धारण करना तर्कसंगत नहीं होगा. उन्होंने वेदमती और कापालिक दोनों शैलियों को कथा के आधार पर विभाजित कर वेदमती शाखा को फिर से दो भागों- ‘लिखित’ और ‘मौखिक’ में बाँटा है, और माना है कि वर्तमान पंडवानी के कुछ गायकों ने वेदमती शाखा के मौखिक रूप को और कुछ ने लिखित रूप को अपनाया है, जिसकी  कथा का आधार सबल सिंह चौहान कृत महाभारत है. डॉ. पी. सी. लाल यादव लिखित-मौखिक रूपों  के विभाजन का आधार पंडवानी गायकों के शिक्षित-अशिक्षित होने को मानते हैं. वे कहते भी हैं कि “मौखिक परंपरा के अन्तर्गत पंडवानी गायकों के पास कोई लिखित साहित्य नहीं होता. वह मूल कथाओं को श्रुति परंपरा के अनुसार सुनकर उसका गायन करते हैं. इसका मुख्य कारण इनकी निरक्षरता है.”[ii] लिखित रूप का अनुसरण करने वाले कलाकारों के विषय में वे कहते हैं- “चूँकि ये पढ़े-लिखे और अध्ययनशील होते हैं, अत: श्री सबल सिंह रचित महाभारत के अतिरिक्त महाभारत से सम्बंधित अन्य साहित्य सामग्री का अध्ययन करते हैं और प्रसंगानुकूल उसका उल्लेख करते हैं.”[iii] आगे उनका मानना है कि पंडवानी की कापालिक शैली पूर्ण रूप से वाचिक परंपरा पर आधारित है जिसमें पात्र और प्रसंग महाभारत के होते हैं किन्तु कथा की संबंधता और घटनाएँ सर्वथा भिन्न होती हैं. वे मानते हैं कि अब इस शैली के गायक कम ही हैं, जो थे भी वे भी वेदमती शैली को अपना चुके हैं.
इस विषय में किसी निष्कर्ष पर पहुँचाने से पूर्व डॉ. विनय कुमार पाठक के मत को भी उद्धृत करना समीचीन होगा- “यह सही है श्रीमती तीजन बाई के पूर्व के प्राय: सभी पंडवानी गायक बैठकर गाथा प्रस्तुत करते रहे हैं लेकिन तीजन बाई खड़ी होती हैं; तब पंडवानी थिरकने लगती है. क्या इसका यह अर्थ है कि कापालिक शैली कि जन्मदात्री श्रीमती तीजन बाई हैं? इससे पूर्व यह शैली किस रूप में थी, क्या किसी के पास उत्तर है? स्पष्ट है, ये दोनों शैलियाँ ज़रूर प्रचलित हैं लेकिन इसमें शास्त्रीयता दिखलाकर लक्ष्मण रेखा खींचना लोकगाथा के साथ अन्याय करना होगा.”[iv]
उपर्युक्त विचारों के विश्लेषण के आधार पर यही कहा जा सकता है कि वर्तमान में तमाम विद्वानों के बीच वेदमती और कापालिक शाखा को लेकर भ्रम बना हुआ है, इस विषय में निश्चित रूप से किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंचा गया है. अतः विभिन्न मतों और प्रस्तुतियों को देखकर और उनका अध्ययन कर के यही कहा जा सकता है कि आज पंडवानी का जो कथा रूप है वह सबल सिंह चौहान रचित ग्रन्थ पर आधारित है किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं लगाना चाहिए कि वर्तमान पंडवानी का स्वरुप केवल वेदमती ही है. मुख्य पंडवानी गायकों के विचार पढ़ और सुनकर भी यही प्रतीत होता है कि वे स्वयं इन दोनों शाखाओं को लेकर स्पष्ट नहीं हैं. इस विषय में झाडूराम देवांगन के कहते हैं- “मेरे मतानुसार वेद के आधार पर जो लोग पंडवानी गाते हैं वे वेदमती शाखा वाले कहलाते हैं. कापालिक शाखा वाले पांडवों से सम्बंधित कथा प्रस्तुत करते है.”[v]
पूनाराम निषाद का कथन है- “जहाँ तक मेरी जानकारी है सभी पंडवानी गायक सबल सिंह चौहान लिखित महाभारत के आधार पर पंडवानी गाते हैं.”[vi] तीजन बाई के विचारों पर भी नज़र डालना उचित होगा- “वेदमती और कापालिक शाखाओं में अंतर बताना बहुत कठिन है. सामान्यत: कापालिक शैली में मंच पर व्यास गद्दी पर बैठकर पंडवानी की प्रस्तुति की जाती है. वेदमती शाखा के लोग पौराणिक ग्रन्थानुसार कथा प्रस्तुत करते हैं. कापालिक शाखा के लोग कथा में किंचित कल्पना के रंग भी भरते हैं.”[vii]
ऋतु वर्मा के मत को जानना भी आवश्यक है- “मेरी जानकारी के अनुसार, सभी पंडवानी गायक सबल सिंह चौहान लिखित महाभारत के आधार पर पंडवानी गाते हैं.................  वेदमती और कापालिक दोनों शाखा और शैली के बेहद बारीक भेद को मैं पूरी तरह नहीं समझती.”[viii]
इन तथ्यों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में पंडवानी में किसी एक शैली का आधिपत्य नहीं है. इसी के साथ खड़े और बैठकर पंडवानी गायन की शैली के बीच विभाजन रेखा खींचना भी उचित नहीं है. जब तीजन बाई द्वारा खड़े होकर पंडवानी गायन का प्रचालन शुरु किया तो पंडवानी का एक नया रूप सामने आया. कई परम्पराएँ टूटी और बनी भी. अब पंडवानी में गायन-कथावाचन के साथ नृत्य और अभिनय भी अहम हो गए, साथ ही सबसे अधिक रेखांकित करने वाली बात यह है कि तीजन बाई के बाद से पंडवानी में आज पुरुषों से ज्यादा स्त्रियों का प्रवेश होने लगा है. इस आधार पर तीजन बाई को कापालिक शैली की प्रवर्तक घोषित करना ग़लत होगा क्योंक पंडवानी की कापालिक अर्थात वाचिक परंपरा तो उतनी ही पुरानी है जितनी स्वयं पंडवानी लोकगाथा शैली.
इसके अतिरिक्त आज पंडवानी को नए-नए अंदाज़ में भी प्रस्तुत किया जा रहा है. रेवाराम गंजीर और विशाल दास इसके जीवंत उदाहरण हैं, जो खड़े होकर पंडवानी को ‘नाचा शैली’ में प्रस्तुत करते हैं.
इस तरह से कहा जा सकता है कि पंडवानी लोकगाथा का वर्तमान स्वरुप किसी खास धारा में न बंधकर कई विधाओं और शैलियों की समन्यव भूमि बन चुकी है, इसलिए निरंजन महावर जैसे कुछ विद्वान इसे ‘एकल लोकनाट्य’ शैली के रूप में भी स्वीकारने लगे हैं. यही वजह है कि छत्तीसगढ़ की सबसे सशक्त प्रदर्शनकारी लोककलाओं में से एक पंडवानी को आज न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी सराहा और सीखा जा रहा है, यह हमारी संस्कृति और कला की शक्ति है किन्तु इस शक्ति को बनाये और बचाए रखने के लिए उसकी ‘मूल जड़ों’ को बचाए-बनाए  रखना अत्यंत आवश्यक है. यह सच है कि पंडवानी आज अपने विकास के शीर्ष पर है पर यह भी झूठ नहीं है कि पंडवानी अपने ‘मूल की सुरक्षा के संकट’ से भी जूझ रही है. अत: विकास के तमाम चरणों को पार करती हुई इस कला के खोते जा रहे ‘अनगढ़’ और ‘गंवईपन’ को पुनर्जीवित करने के लिए आवश्यक है उन गुमनाम कलाकारों को प्रकाश में लाना जिनमें अभी भी असली पंडवानी जिंदा है.





[i] महावर, निरंजन, “पंडवानी : महाभारत की एक लोकनाट्य शैली”, (2014), राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-10.
[ii] यादव, डॉ. पी.सी. लाल, “पंडवानी परंपरा और प्रयोग”, (2011), वैभव प्रकाशन; रायपुर, छत्तीसगढ़, पृष्ठ-42.
[iii] वही, पृष्ठ-43
[iv] निर्मलकर, बलदाऊ प्रसाद, “पांडव गाथा : पंडवानी और महाभारत, (2005), बिलासा कला मंच; बिलासपुर, छत्तीसगढ़, भूमिका (पाठक, डॉ. विनय कुमार).  
[v] अग्रवाल, महावीर, “छत्तीसगढ़ की लोकधर्मी : पंडवानी”, (2014), श्री प्रकाशन; दुर्ग, छत्तीसगढ़, पृष्ठ-32.
[vi] वही, पृष्ठ-48.
[vii] वही, पृष्ठ-96.
[viii] वही, पृष्ठ-121.


 [जनकृति पत्रिका के अंक 24 में प्रकाशित आलेख]

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