kuch kahi kuch unkahi...
कुछ कही कुछ अनकही सी बात रह जाती है
जब अपने होठो मैं बंद कर लेता हु अपने अल्फाजो को
एक पल के लिए दिल से दिमाग तक पहुच जाते है विचार मेरे
फिर तुमको देखने लगता हु सूखे वृक्षों मैं ,
सड़क पर काम करती स्त्री मैं,
तुलना करता हु तुम्हारे दर्द की
उस प्रसव पीड़ा मैं पड़ी आशाहीन माँ की
जब देखने लगता हु तुम्हारी आँखों से गिरते हुए आंसुओ को ,
तो याद आता है उस बुख से बिलकते बच्चे का चेहरा ,
जब सोचता हु तुम्हारी सुन्दरता के बारे मैं
तो दिखाई देता है उस स्त्री को फटे कपड़ो से खुद को ढकना
जब मैं तुम्हारे घर के बहार खड़ा होता हु
तो मुझे मिटटी के बांस के बने घर याद आ जाते है
जब देखता हु तुम्हारा घुस्सा मेरे प्रति
तो मुझे अस्तित्व की लड़ाई की वो क्रांतिय याद आ जाती है ..
जब तुम होती हो शांत तो एक तूफ़ान होता है
जो प्रतीक्षा करता है मानवता को लीं लेने की
तुम समय के साथ बदल जाओगी
पर क्या बदलेगी वो परिस्तिथिया
जो मैं तुममे हो कर देखता हु.............
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धन्यवाद