पूर्वाञ्चल भारत में वैष्णव
भक्तिकालीन कलारूपों की सामाजिक भूमिका
भारत
के पूर्वोत्तर हिमालयी क्षेत्र तथा उसके
निचले मैदानी पर बसे राज्यों को पूर्वाञ्चल कहा गाय है । पूर्वाञ्चल राज्य अपनी
प्राचीन एतिहासिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक , धार्मिक संपन्नता के लिय जाना जाता है । इन राज्यों का विभाजन महाजनपद
काल में अंग , बंग , ओड्र , पुंडवर्धन , कामरूप नाम से हुआ जो वर्तमान में
बिहार , बंगाल , असाम , उड़ीसा , मिज़ोरम , त्रिपुरा , मणिपुर , मेघालय के नाम से जाने जाते हैं ।यह सभी
राज्य भाषायी विविधता के बावजूद धार्मिक दृष्टि से एक दूसरे के समीप आ जाते हैं
। यह सभी राज्य किसी न किसी शासकों के
अधीन रहे इसलिए इन सभी राज्यों का इतिहास काफी उथल पुथल वाला रहा । पूर्वाञ्चल का
समाज कई कारणों से धार्मिक आंदोलनों का गवाह भी रहा जिसमें सबसे अधिक विस्तार बोद्ध
धर्म तथा वैष्णव धर्म का मिलता है ।
पूर्वाञ्चल
में कई कला रूप गीत नृत्य आदि के रूप में मोजूद थे । इन कला रूपों पर कई धार्मिक
आंदोलनों का प्रभाव देखने को मिलता है जिसमें वैष्णव धर्म ने मध्यकाल में आकार कई
कला रूपों को जन्म दिया जिसमें नाट्यकला प्रमुख थी ।वैष्णव धर्म या वैष्णव
संप्रदाय का प्राचीन नाम भागवत धर्म या पंचरात्र मत है , इस
संप्रदाय के प्रधान उपास्य देव वसुदेव है जिनहे ज्ञान ,
शक्ति , बल , वीर्य ,एश्वर्य पीआर तेज इन छः गुणों से सम्पन्न होने के कारण भगवान या भागवत कहा
गया है । वैष्णव धर्म यज्ञप्रधान वैदिक कर्मकांड के प्रविति के विपरीत इसे
निवृत्ति मार्ग बताया गया है । वैष्णव धर्म के केंद्र कृष्ण भारतीय जनमानस में
वसुदेव के रूप में पहले से प्रचलित थे । यह एक कारण भी था की वैष्णव धर्म उत्तर
भारत में प्रचलित हुआ ।
मध्यकाल
का युग जिसे इतिहास में भक्तिकाल का युग कहा गया है कई धार्मिक आंदोलनों के लिए
जाना जाता है जिसमें वैष्णव आंदोलन व्यापक तोर पर दिखाता है जिसने उत्तर से दक्षिण
तक की भक्ति पद्धति को प्रभावित किया । दक्षिण में अलवार संतों ने भक्ति की मधुर
हिलोरों को उत्तर की ओर बहाई । इन्हीं की परंपरा में रामानुजाचार्य हुए । कहा गया
है की ‘भक्ति द्रविड़ उपजे लाये रामानन्द’ दक्षिण के अलवार (
वैष्णव ) और आडियार ( शैव ) भक्तों में ब्राह्मण और अछूत ,
राजा और रंक सभी शामिल थे । रमानन्द तथा बंगाल के चैतन्य देव ने जाती वर्ण भेद को
समाप्त किया तथा भक्ति में भजन और लीलागान की परंपरा का सूत्रपात किया । शैव
नायनारों और वैष्णव आलवारों ने जैनियों और बोद्धों द्वारा प्रचारित कठोर जीवन को
अस्वीकार कर दिया तथा मुक्ति के लिय ईश्वर की व्यक्तिक भावना पर ज़ोर दिया ।
उन्होने जातिप्रथा की कठोरता की उपेक्षा की तथा दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में
स्थानीय भाषाओं का उपयोग करते हुए प्रेम और ईश्वर की व्यक्तिक भक्ति के संदेश का
प्रचार किया ।
भक्ति
आंदोलन के लोकप्रिय होने का यह कारण भी था की लोग कर्मकांडों और तीर्थाटनों वाले
पुराने धर्मों से संतुष्ट न थे और ऐसा धर्म चाहते थे , जो
उनकी बुद्धि और मनोभावना , दोनों को संतुष्ट कर सके । वैष्णव
धर्म के प्रचारकों में बिहार में जयदेव , बंगाल में चैतन्य
देव , असाम में शंकरदेव प्रमुख थे ,जिन्होने
अपने रचनात्मक सहयोग से वैष्णव धर्म का प्रचार किया । इसी काल में कई कला रूप सामने आए । मानव सभ्यता
के विकास क्रम में प्राचीन रंगमंच का प्रदूभाव हुआ । भारत में मध्ययुगीन भक्ति
संतों का मुख्य उद्देश्य उच्च मानवीय मूल्यों और सामाजिक आदर्शों की स्थापना करना
था । उन्होने एक मत से तत्कालीन सामाजिक विसंगतियों का विरोध किया जिसके द्वारा
संत अपनी वाणी और विचारों का जन जन तक पहुंचा सके तथा वो माध्यम आज लोगों के मध्य
लोकप्रिय भी है । गहरे आतमनवेषण के बाद भक्ति संतों ने लोक रंजन के लिए प्रचलित
गीतों एवं नृत्यों को ही अपना माध्यम बनाया । कालांतर में इस नृत्य गाँ शैली में
लोक आदर्श के कथा तत्व जुड़ जाने से पारंपरिक नाट्योन का उद्भव हुआ ।
बिहार
का कीर्तनियाँ , बिदापत , बंगाल का जात्रा , असाम का अंकीया नाट , मणिपुर का गौर लीला , त्रिपुरा की ढब जात्रा यह सभी इस परंपरा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है । मध्यकाल
में जब संस्कृत रंगमंच ह्रासोन्मुखी हुआ , साहित्यिक नाटकों
की परंपरा बिखरने लगी , ऐसी स्थिति में रंगमंच पतनोन्मुख
नहीं हुआ बल्कि वो लोकोन्मुख हो गया । यह
प्रवृति देशव्यापी थी । केरल से लेकर आसाम
तक की रंगशालाओं में शास्त्रीय रंगमंच लोकनतयोन के संपर्क में आके
पुनर्जीवित हो उठे । देश के कुछ भागों में राजाओं ने न केवल नाटककार और नाट्य
प्रदर्शन को आश्रय दिया वरन स्वयं नाट्य आंदोलन के विकास का नेतृत्व भी किया
। मिथिला ( बिहार )
में इस आंदोलन के अगुआ करनाटकवंशी शासक हरीसिंग देव थे उनके नाट्य काल में ज़ो
परंपरा स्थापित हुई वह 20वीं शताब्दी के अंत तक निरंतर प्रवाहित होती रही ।
संस्कृत रंगमंच के हरसोन्मुख पृष्ठभूमि में गीतभूमि के प्रेरणा से केरल के
रंगकर्मी और शासक वर्मन ने नाट्य लेखन की शुरुआत की वह सम्पूर्ण उत्तर भारत के
प्रदर्शंकारी कलारूपों को प्रभावित किया । इस काल में केरल से असाम तक की
रंगशालाओं में पुनर्जीवित हुए उसकी पृष्ठभूमि में निम्नलिखित कलारूपों का योगदान
था : छठी शताब्दी में परंपरित संगीतक , जयदेव का गीतगोविंद ।
इसी
काल में ज्योतिरीश्वर ठाकुर का धुर्तसमागम तथा उमापति द्वारा पारिजातहरण की रचना
हुई । असम से लेकर दक्षिण भारत ( केरल ) तक यह नाटक लोकप्रिय रहे । बिदापत नाच ,
कीर्तनियाँ तथा अंकीया नाट तक में पारिजातहरण खेला जाता है जिसमे कृष्ण ओर रुक्मणी
का प्रसंग है । कीर्तनियाँ परंपरा के कई नाटक असम , बंगाल और
दक्षिण भारत में प्रदर्शन थे । इसमें लगभग बीस नाटकों में करीब चोदह नाटक कृष्ण
कथाश्रित है ।
वैष्णवकालीन
रंगमंच पर जयदेव के गीतगोविंद का व्यापक प्रभाव पड़ा । जयदेव का गीत गोविंद भारतीय
नाट्य परंपरा के इतिहास में लोक – प्रवर्तक काव्य के रूप में अवतीर्ण हुआ । राधा-
कृष्ण के रास प्रसंग को नृत्य और संगीत में निंबद्ध करके जयदेव ने जिस नई प्रदर्शन
शैली का विकास किया उसने तत्कालीन सभी नाट्य रूपों को प्रभावित किया । जयदेव के
बाद विद्यापति पूर्वाञ्चल भारत के कृष्ण के बड़े प्रेणता हुए । जयदेव की तरह इनहोने
भी वसंत रास के ही गीत रचे इसलिए पूर्वाञ्चल भारत में रास की मंचीय परंपरा भी वसंत
रास की है । मणिपुरी रास भी प्रतिनिधि नाट्य – नृत्य रूप है ।
वैष्णवकालीन
लोक - नाट्य परम्पराओं में कृष्ण – विषयक कई कथानक का वर्णन मिलता है । बंगाल की जात्रा
में जहां कृष्ण की लीलाओं का समावेश है वहीं मणिपुर की गौर लीला अपने सामाजिक
स्वरूप में विस्तार पाती है । असम के शंकरदेव उन संतों में से है जिन्होने अपने विचारों
का प्रसार के लिए भारत भ्रमण किया । भक्तिकाल में वैष्णव संतों ने ब्रज की तरफ रुख
किया साथ ही वहाँ की रास परंपरा को अपने
काव्य में स्थान दिया । शंकरदेव ने ब्रज से वापस लोटने पर सम्पूर्ण पूर्वाञ्चल की
यात्रा की । वहाँ उन्होने बंगाल में जात्रा तथा बिहार में कीर्तनियाँ ( पारिजातरण
) नाटक आदि का प्रदर्शन देखा । असम लोटने के बाद सघन अनुभव से असम के प्राचीन
नृत्यों के साथ अंकीया नाट को जन्म दिया । इसलिए अंकीया नाट में कीर्तनियाँ ,
जात्रा आदि के तत्व प्रचुर मात्र में मिलते हैं । तत्कालीन समाज को शंकरी भक्ति से
शांति मिली ।
इन
सभी नाट्य रूपों ने वैष्णव कथा रूपों के माध्यम से आक्रांत जनता को आस्था शांति का
मार्ग दिखाया । वैष्णव संत जिस कर्मकांड के विरुद्ध मत का प्रचार कर रहे थे इन
नाट्य रूपों से उनके प्रसार में काफी हद
तक सफलता मिली । इन सभी वैशनावकालीन नाट्यरूपों के कथानकों में कृष्ण मुख्य पत्र
के रूप में है अपने आराध्य को अपने सम्मुख देखकर जनता भावविभोर हो जाती थी उनके
जीवन के नितांत समीप होने के कारण वैष्णव आधारित नाट्य रूपों का विकास हुआ इसने कई
सदियों तक भारतिय जनमानस को एकसूत्र में
बांधे रखा ।
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कुमार गौरव मिश्रा
शोधार्थी,एम.फिल (नाट्य कला एवं फिल्म अध्ययन )
म.गा.अं.ही.वी.वी. वर्धा , महाराष्ट्र
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