भारत का वैष्णव रंगमंच (vaishnav theatre in india )
भारत का वैष्णव रंगमंच (vaishnav theatre in india )
16वीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन से अस्तित्व में आए लोक /पारंपरिक नाट्य रूप
इतिहास के प्राचीन तथा मध्यकाल के संधि बिन्दु पर उद्भित
भक्ति काल एक पूर्णतः बौद्धिक विमर्श का आन्दोलन था। इस संधि बिन्दु
ने भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में कई विचारधाराओं की पुनर्व्यख्या तथा स्थापना की।
जाति व्यवस्था के बंधनों में शिथिलता आने के कारण विचार तथा कर्म दोनों स्तरों पर
समाज का उन्नयन हुआ। देशज बोलियों का उद्भव लोकनाट्य रूपों का पुनः अस्तित्व में
आना साथ ही आधुनिक काल की सबसे बड़ी उपलब्धि
मानवतावाद का अंकुर भक्तिकाल में देखा जा सकता है। भक्ति आंदोलन मूल रूप में लोक-जागृति और जन संस्कृति का प्रतीक था।
साहित्येतिहासकारों
ने सम्पूर्ण भक्तिकाल को दो भागों में विभक्त किया सगुण तथा निर्गुण। इन धाराओं के
अंतर्गत सगुण शाखा सुदृढ़ रूप में सम्पूर्ण राष्ट्र को सांस्कृतिक सूत्र में बांधती
है । सगुण भक्ति धारा के अंतर्गत वैष्णव भक्ति आंदोलन का राष्ट्रीय स्वरूप
तत्कालीन समाज के समक्ष आता है, जिसके सम्पूर्ण
राष्ट्र को सांस्कृतिक सूत्र में बांधा। वैष्णव भक्ति आंदोलन के भीतर इतिहास की
रूढ़िग्रस्त मान्यताओं को खंडित करने क्षमता थी । कहा गया है “भक्ति द्रविड़ उपजे लाये रमानन्द” भक्ति आंदोलन का उद्भव द्रविड़ प्रदेश से माना गया है, वैष्णव भक्ति का
सूत्रपात दक्षिण से माना गया है । भागवत गीता में भक्ति ने स्वयम अपने संदर्भ में
कहा है कि मेरा जन्म तमिल प्रदेश में हुआ कर्नाटक में मैं विकसित हुई आदि..... दक्षिण भारत से चलने वाली भक्ति का राष्ट्रीय स्वरूप हमें मध्यकाल में आकर देखने को मिलता है
जहां भक्ति लोकचेतना के संदर्भ में देखने को मिलती है । लौकिक दृष्टि से भक्ति को
देखने की महत्वता सिद्ध हुई ।
जयदेव के गीतगोविंद
तथा तुलसीदास के रामचरितमानस दो महाकाव्यों में ईश्वर लौकिक धरातल पर उतरते हैं।
राम जहां आदर्श चरित्र के प्रतीक बनकर आदर्श समाज का उदाहरण देते हैं तो
कृष्ण एक समान युवक की तरह प्रेम प्रसंग
करते नजर आते हैं जहां जनमानस के गृहस्थ जीवन की झलक देखने को मिलती है । भारत में
आर्यों तथा अनार्यों के बीच संघर्ष ने कई विचारों को जन्म दिया । अपने अस्तित्व से
लड़ते मूल निवासियों ने अपने कष्टों को हरने वाले चरित्रों की कल्पना की । कृष्ण के
रूप में वही कष्ट हरता की छवि समाज को दिखती है कृष्ण के जीवन यात्रा में वह कई
राक्षसों का संघार करते हैं यही कारण है कि भारत के जिस क्षेत्र ने इस संघर्ष को
झेला वहाँ कृष्ण अधिक प्रसिद्ध हुए वहीं राम का चरित्र असुंतलित समाज में आदर्श
पुरुष के रूप में हुई । ऐसा व्यक्तित्व जो उच्च गृहस्थ का उदाहरण प्रस्तुत करता है
राम की कथा में वह आदर्श पुत्र, पति, आदर्श
भाई की भूमिका निभाते हैं तो समाज को कष्टों से निवारण करते हैं यह कारण था
की न केवल भारत अपितु दक्षिण पूर्व एशियाई देशों(म्यमांर, बर्मा, बांग्लादेश आदि) के लोकजनमानस में
आदर्श गृहस्थ जीवन के प्रतीक के रूप में राम आते हैं। तथा यहाँ राम कथा को प्राचीन
काल से ही गाया तथा खेला जाता है। समय के साथ इन ईश्वरीय चरित्रों के साथ कर्मकांड
को जोड़ दिया गया जिसने भक्ति के स्वरूप में विविधता को जन्म दिया। उत्तर से लेकर
दक्षिण भारत में कर्मकांड उभर कर आया । इन कर्मकांडों की भी सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से भूमिका थी। मध्यकाल में आकर
भक्ति का सामाजिक स्वरूप एक व्यापक विकल्प के रूप में जनमानस के समक्ष मिलता है।
मध्यकला के इस वैचारिक आंदोलन की राष्ट्रीय
भूमिका थी। तमिल में अलवारों तथा नयनारों का भक्ति स्वरूप तथा बंगाल में
चेतन्यदेव तथा असम में शंकरदेव के वैष्णव भक्ति के स्वरूप में व्यापक अंतर देखने
को मिलता है। राम तथा कृष्ण के समाजीकरण का कार्य संतों द्वारा मध्य युग में हुआ ।
व्यापक तौर पर वैष्णव विचारधारा का प्रसार हुआ परंतु वैष्णव विचारधारा के ही दो
स्वरूप हमें मध्यकाल में दिखते हैं दक्षिण में जहां अलवारों ने कर्मकांड को नहीं
त्यागा परंतु उत्तर भारत में खासकर पूर्वोत्तर भारत में वैष्णव भक्ति वर्णवाद तथा
कर्मकांड के विरुद्ध मत लेकर चलती है।
वैष्णव भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि में कई कला
रूपों का स्वरूप उभर कर आया इसका एक मुख्य कारण यह था कि मध्यकाल में संतों ने
अपने विचारों को संप्रेषित करने के लिए इन कलारूपों को अपना माध्यम बनाया। वैष्णव मत को संप्रेषित करने में लोक नाट्य रूपों की
महत्वपूर्ण भूमिका रही । उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक कई लोक नाट्य पुनः अस्तित्व
में आए । इन लोक नाट्यों की महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका थी । एक व्यापक जन आंदोलन, वैचारिक आंदोलन के माध्यम के रूप में लोक नाट्य
का प्रादुर्भाव हुआ । लोक नाट्य के मंच पर पौराणिक कथानकों को वर्तमान समस्या के
साथ सलग्न कर प्रदर्शित किया जाने लगा । ईश्वर मंच पर सामान्य मनुष्य की तरह लीला
करते हैं और दर्शक उन चरित्रों को अपने आस पास महसूस करता है । लोक नाट्य के मंच
पर अवतरित ईश्वर कोई अलौकिक पात्र नहीं बल्कि उसी समाज से संघर्ष करता व्यक्तित्व
है । ईश्वर का यह चरित्र ही मध्यकाल का मुख्य बिन्दु बना । अपने सामाजिक आदर्श
पात्रों को मंच पर देख जनता उसे जुड़ जाती थी संत इसी के माध्यम से एकता का प्रचार
करते थे । सदियों से लोकमानस की अभिव्यक्ति के रूप में अपनी सामाजिक भूमिका निभाते
रहे मध्यकाल की वैष्णव पृष्ठभूमि में यह लोक नाट्य रूपो पुनः अस्तित्व में आए वैश्विक परिदृश्य
में देखें तो जिस प्रकार यूरोप में पुनर्जागरण काल आया ठीक उसी तरह भारत में
मध्यकाल का युग वैचारिक दृष्टि से नवजागरण का काल था । ईश्वरीय अलौकिक चरित्र के
स्थान पर मानवीय चरित्रों को स्थापित किया गया
1. उत्तर भारत में
वैष्णव लोक नाट्य रूप- रासलीला, रामलीला
2. पूर्वी भारत में
वैष्णव लोक एवं पारंपरिक नाट्य रूप- बिदापत,कीर्तनियाँ,जात्रा, धनु जात्रा, प्रह्लाद नाटकम,
3. पूर्वोत्तर भारत
में वैष्णव लोक एवं पारंपरिक नाट्य रूप- ढब जात्रा, शुमाङ्ग लीला, गोड़ लीला, गोष्ठ लीला, अंकिया, भाओना
4. दक्षिण भारत में
वैष्णव लोक एवं पारंपरिक नाट्य रूप- कूडियट्टम, कृष्णाट्ट्म, भागवत मेल, यक्षगान, दशावतार
इन कलारूपों की व्यापक सामाजिक सांस्कृतिक भूमिका को जानना आवश्यक है।
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