भाओना/ अंकिया नाट
महाभारत कालीन कथाओं
को केंद्र में रखकर असम के लोग आज भी भावना, रास
और अंकिया नाट्य शैली के माध्यम से अपनी भक्ति भावना को प्रदर्शित करते हैं और उन
भावनाओं में जीते हैं। भारत के केंद्रीय हिस्सों से दूर होने के बावजूद राष्ट्रीय
एकता और अखंडता की भावना से यहाँ के लोगों को जोड़े रखने में इनकी महत्वपूर्ण
भूमिका है।
'भावना',
रास
और अंकिया नाटकों में महाभारत में दर्ज कृष्ण-लीला और दूसरे धार्मिक प्रसंगों को
गायन और नृत्यशैली में मंचित किया जाता है जिन्हें देखने के लिए भक्तिभाव से
ओतप्रोत हजारों लोगों के कदम खुद ब खुद प्रदर्शन स्थल की ओर उठ चलते हैं।
उल्लेखनीय है कि महाभारत के विभिन्न पात्रों और घटनाओं से पूर्वोत्तर भारत के लोग
अपनों-सा जुड़ाव महसूस करते हैं। कहते हैं कि श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी अरुणाचल
प्रदेश की थीं तो अर्जुन की पत्नी उलूपी नगालैंड की। श्रीकृष्ण के पोते अनिरुद्ध
ने असम के राजा वाण को युद्ध में पराजित कर उनकी बेटी उषा के संग विवाह किया था
महाभारत के पात्रों के संग असम के लोगों का यह जुड़ाव आज भी जीवित है और उनके साथ
जीवित है 'भावना'।
भावना
में पशु-पक्षियों की भूमिका अदा करने के लिए मुखौटों का प्रयोग होता है। इस
गीति-नाट्य प्रस्तुति में सूत्रधार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसका प्रदर्शन
खुले मंच पर होता है। अन्य नाटकों की तरह इसमें भी भड़कीले-गाढ़े मेकअप और पोशाकों
का प्रयोग होता है। कलाकार पूरे जोश में घूम-घूमकर संवाद बोलते हैं। इसे देखकर
पारसी नाट्य शैली की याद आ जाती है।
भावना
का मंचन हमेशा और हर जगह नहीं होता बल्कि कुछ खास मौके ही इसके लिए चुने जाते हैं।
भावना की शुरुआत 14वीं सदी में असम के संत श्रीमंत शंकर देव ने की थी। उन्होंने
असम के सभी समुदायों के लोगों को एक मंच पर लाने के लिए शंकरी मत की स्थापना की
तथा नामघरों और सत्रों की स्थापना की। उनका जोर विश्वास और प्रार्थना पर था। वे
आध्यात्मिकता के साथ सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता में ज्यादा यकीन
करते थे। अपने मत के प्रचार के लिए उन्होंने एक नाट्यशैली प्रचलित की,
उसे
विकसित किया और उसे भावना तथा अंकिया नाट का नाम दिया। उन्होंने करीब दस वर्षों तक
देश के सभी प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों का दौरा किया तथा 'भागवत'
की
रचना की। इसके लिए उन्होंने असमिया लिपि में ब्रज और मैथिली भाषा का उपयोग किया।
यही
वजह है कि शंकरदेव द्वारा रचित नामघोपा कीर्तन में ब्रज और मैथिली शब्दों की भरमार
है। श्रीमंत शंकर देव ने ब्रह्मपुत्र के मध्य स्थित नदी द्वीप माजुली में सत्रों
और नामघरों की रचना की और मातृभूमि सबसे बड़ी मां है का संदेश दिया। समस्त भारत एक
है की भावना को प्रबल किया। कालांतर में उन्होंने सत्रों को अध्यात्म,
संस्कृति
और कर्म संस्कृति के केंद्र के रूप में विकसित किया। प्रार्थना के लिए बरगीत
(धार्मिक गीत) की रचना की और उसके सुर बनाए तथा उसके साथ बजाए जाने वाले
वाद्ययंत्रों का भी निर्धारण किया। सत्रों में युवक और युवतियों को समूह में लाया
गया और उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया गया।
इस
क्रम में उन्होंने लोगों के मन में भारतीय सांस्कृतिक एकता का बीज भी बो दिया।
पूर्वोत्तर का शेष भारत के साथ बना हुआ सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध अलगाववाद के
सफल न हो पाने की बड़ी वजह है। आज असम में करीब पैंसठ सत्र हैं। उनमें माजुली के
चार सत्रों का विशेष महत्व हैं। सत्र में रहने वाले छात्र-छात्राएँ सिर्फ
प्रार्थना नहीं करते। उन्हें खेतों में काम करना होता है। गाय चराने होते हैं।
प्रार्थना, बहस और अध्ययन के
अलावा सत्रीया नृत्य, भावना
अंकिया नाट की भंगिमा, मंचन
की अन्य कलाओं के साथ इस मौके पर बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों के प्रयोग का
प्रशिक्षण भी लेना होता है। हर सत्र में एक खास तरह की हस्तकला मसलन मुखौटे,
नाव
आदि बनाने का का भी प्रशिक्षण दिया जाता है।
शंकरदेव
दर्शन के विद्वान डॉ. पीतांबर देव गोस्वामी का मानना है कि जब तक असम में सत्र सक्रिय
रहेंगे, 'भावना'
जीवित
रहेगी और शेष भारत के साथ असम का संबंध बना रहेगा। वे मानते हैं कि असम के लोग
राजनीति से ज्यादा सांस्कृतिक रूप से शेष भारत के साथ इस तरह जुड़े हुए हैं कि
उन्हें कोई अलग नहीं कर सकता है। वे मानते हैं कि असम के सत्र राष्ट्रीय अखंडता बनाए
रखने में मूक भूमिका निभा रहे हैं।
भावना,
मुखौटे
का निर्माण, परंपरागत
वाद्ययंत्रों के विकास और संरक्षण में गुवाहाटी में स्थापित श्रीमंत शंकरदेव
कलाक्षेत्र का उल्लेखनीय योगदान कर रहा है। वहां की दीवालों पर की गई पेंटिंग और
संग्रहालय के माध्यम से असमिया संस्कृति को सहेजकर रखा गया है।
कलाक्षेत्र के सचिव
गौतम शर्मा ने बताया कि सत्रीय नृत्य को भारतीय शास्त्रीय नृत्य में शामिल करने के
प्रयास चल रहे हैं।
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