भारत तथा पूर्वी एशियाई देशों में रामकथा की परंपरा
भारतीय परम्परा का कालजयी महाकाव्य रामायण, देश की भावनात्मक सांस्कृतिक एकता का बुनियादी सूत्र है।
रामायण भारतीय सामाजिक जीवन के मूल्यों का आधार तथा लोक स्मृति के आदि ग्रंथों में
से एक है। यह उन दुर्लभ आख्यानों में असाधारण है जिसने भारतीय जनजीवन को सबसे अधिक
प्रभावित किया है। भारतीय कला परम्परा में संगीत, नृत्य, लीला, नाटय, चित्र, मूर्ति आदि अनेक कला
माध्यमों में रामायण की आधार भूमि लेकर एक समृध्द सांस्कृतिक परम्परा का निर्माण
हुआ है।
रामकथा शताब्दियों से भारतीय जनमानस से जुड़ी हुई है, और इसीलिए भारतीय लोक-जीवन का अभिन्न अंग भी है। जहाँ-जहाँ
भी भारतीय हैं वहाँ-वहाँ किसी न किसी रुप में रामकथा प्रचलित है।
रामकथा की परम्परा के मुख्य चार पक्ष रहे हैं –
मौखिक परम्परा,
लिखित काव्य परम्परा,
प्रदर्शनकारी परम्परा
चित्रकला परम्परा
विद्वानों की राय है
कि रामायण की लिखित और
सहित्यिक परम्परा से अधिक पुरानी रामायण की मौखिक परम्परा का अंग है। रामायण का
पाठ रामायण संबंधी प्रदर्शन का आधार होता है। वास्तव में पाठ
के साथ ही रामायण की
अभिनय परम्परा का जन्म हुआ।
प्रारम्भ में
रामकथा पर आधारित कथानकों का अभिनय संस्कृत नाटकों के माध्यम से मुखरित हुआ और तत्
पश्चात संस्कृत में अनेक नाटकों की रचना हुई जिनमें भास, भवभूति, जयदेव आदि की रचनाएँ प्रमुख हैं। लगभग दसवीं शताब्दी में
संस्कृत नाटकों की परम्परा का ह्रास हो गया और उसके बाद क्षेत्रीय भाषाओं में
रामायण की रचना हुई। क्षेत्रीय भाषाओं के रामकथा संबंधी ये प्राचीन नाटक ही आगे
चलकर मध्ययुगीन रामायण नाट्य परम्परा का सूत्रपात करते हैं।
रामकथा की प्रदर्शन परम्परा में सबसे समृद्ध विधा पारम्परिक
रामलीला ही है - रामलीला के प्रवर्तक का सुनिश्चित नाम जान पाना बड़ा कठिन है।
बाल्मीकि रामायण में "कुरु राम कथा पुण्याम् श्लोक बद्धां मनोरमाम्"
(बालकाण्ड द्वितीय सर्ग श्लोक-३६) अर्थात "राम की मनोरम पुण्यमयी कथा का गान
करो" कह कर आदि कवि ने राम कथा के गायन का स्वरुप निर्धारित किया था। लेकिन
रामलीला के उद्भव में मध्ययुगीन नाट्य परम्परा झाँकियों, पंचरात्र संहिताओं शोभायात्राओं, भाषा नाटकों आदि की प्रेरणा रही है। मध्ययुग
में समस्त कलाओं यथा मूर्ति कला, चित्रकला, संगीत कला आदि के
द्वारा धर्म के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया गया। ऐसा लगता है कि इन्हीं
परिस्थितियों में रामलीला का उद्भव और विकास हुआ। हरिवंश पुराण में रामायण के
नाट्य स्वरुप के प्रस्तुत करने की बात कही गई है - "रामायणं महाकाव्यं
उद्देश्यं नाटकी कृतं" उत्तर रामचरित, बाल रामायण, प्रसन्न राघव, हनुमन्नाटक आदि
के द्वारा रामकथा का नाट्य रुपान्तरण किया गया। महाराष्ट्र की ललित कलाओं तथा असम
और बंगाल की रामयात्राओं में राम कथा प्रस्तुत की गई। अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध ग्रंथ
"सन्देश रासक" के कवि अद्दहमाण या अब्दुल रहमान के रामायण के अभिनय की
बात कही है। गुरु नानक की "झासा दी वार" में रामकथा के अभिनय का उल्लेख
है। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास के पूर्व से ही रामकथा के अभिनय की एक प्राचीन
परम्परा परीलक्षित होती है। वह पारम्परिक शैली रामचरित मानस के आविर्भाव से न केवल
समृद्ध हुई अपितु कालान्तर में रामचरित मानस ही इस पारम्परिक रामलीला का आधार
ग्रन्थ बन गया है।
दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में बसी रामकथा
भारतीय संस्कृति के प्राणाधार भगवान राम दक्षिण-पूर्व एशिया के मुस्लिम देशों
की संस्कृति में भी रचे बसे हैं। वहाँ रामकथा विभिन्न रूपों में प्रचलित है और
लोक-जीवन से इतनी गहराई तक जुड़ी हुई है कि वह उनकी संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई
है।
दक्षिण-पूर्व एशिया में रामकथा विषय पर शोध कार्य कर रहे साहित्य के सर्वोच्च
सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत संस्कृत के प्रकांड विद्वान प्रोफेसर डॉ.
सत्यव्रत शास्त्री ने दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में रामकथा के विभिन्न प्रचलित
रूपों, उसके विविध आयामों तथा
वहाँ की लोक संस्कृति में रामायण के महत्त्व पर विस्तार से बातचीत की।
उन्होंने बताया कि म्यांमार, थाइलैंड, मलेशिया, कंबोडिया, लाओस आदि देशों
में रामकथा विभिन्न नामों से प्रचलित है। थाइलैंड में इसे रामकियन अर्थात
रामकीर्ति, कंबोडिया में रामकेर,
म्यांमार में रामवत्थु, रामवस्तु और रामाथग्गियन, मलेशिया में हेकायत तथा लाओस में फ्रलक फ्रराम यानी श्री
लक्ष्मण-श्रीराम कहा जाता है। यहाँ सभी उदात्त पात्रों के नाम के आगे फ्र यानी
श्री लगाना आवश्यक होता है जैसे फ्र आतिथ (आदित्य) फ्र चान (श्री चंद्र) इसी तरह
उदात्त महिला पात्रों के नाम के आगे नांग यानी श्रेष्ठ लगाना ज़रूरी है जैसे नांग
सीदा (सीता)।[1]
इस संदर्भ में उन्होंने एक दिलचस्प बात बताई कि दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकतर
देश बौद्ध या मुस्लिम धर्म के अनुयायी हैं इसलिए मलेशिया की रामायण में रावण को
भगवान शंकर के बजाय अल्लाह से वर माँगते दिखाया गया है। उन्होंने कहा कि इस
सिलसिले में यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि केवल लाओस में रामकथा के शीर्षक में
श्रीराम के नाम के आगे लक्ष्मण का नाम आता है। इसके अलावा सिर्फ़ इंडोनेशिया में
ही रामकथा के लिए रामायण शब्द का इस्तेमाल होता है। वहाँ इसे रामायण ककविन (रामायण
काव्य) कहा जाता है।
डॉ.शास्त्री ने रामायण के प्रसंग में कुछ और दिलचस्प बातें बताई, मसलन म्यांमार में जब लोगों के बीच झगड़ा होता
है तो यह कहा जाता है कि क्या सुग्रीव और बाली की तरह लड़ते हो। इसी तरह थाइलैंड
में रामकथा जनमानस में इतने गहरे तक समाई हुई है कि किसी की आँखों की सुंदरता की
उपमा सीताजी की आँखों से दी जाती है जबकि शूपर्णखा भद्देपन का प्रतीक है। मलेशिया
में सुल्तान की उपाधियों में चरोन बाहुका (चरण पादुका) शब्द का भी इस्तेमाल होता
है। रामायण से संबंधित अन्य शब्दावलियों का प्रयोग भी इन देशों में बहुतायत होता
है, जैसे सुनामी को इन
क्षेत्रों में राफनासुर यानी रावणासुर तथा रावण को तोस्सकन यानी दशकंठ कहा जाता
है।
डॉ. शास्त्री ने बताया कि मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया में रामलीला को राज्याश्रय
प्राप्त है। हिंदुओं की तरह मुसलमान भी वहाँ भारत से ही गए थे। इस संबंध में
उन्होंने एक रोचक प्रसंग का ज़िक्र किया कि राष्ट्रपति सुकर्णो के समय में
पाकिस्तान का एक प्रतिनिधिमंडल इंडोनेशिया की यात्रा पर था। उस दौरान
प्रतिनिधिमंडल को वहाँ रामलीला देखने का मौका मिला और वह इस बात से हैरान था कि एक
मुस्लिम देश में रामलीला का मंचन क्यों किया जाता है। इस बारे में जब उन्होंने
राष्ट्रपति से सवाल किया तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया, हमने अपना धर्म बदला है, अपनी संस्कृति नहीं।
उन्होंने दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में रामकथा में आए बदलावों का ज़िक्र
करते हुए बताया कि थाई रामायण में रावण-राम से युद्ध को टालने के लिए कई तरह की
युक्तियाँ अपनाता है लेकिन वहाँ की रामायण में राम से भी अधिक महत्त्वपूर्ण पात्र
हनुमान, रावण की सभी चालों को
विफल कर देते हैं। पहले वह विभीषण की पुत्री बेंजवई को यह कहकर भेजता है कि वह
सीता का रूप धारण कर नदी में उस स्थान पर शव की तरह तैरती रहे जहाँ श्रीराम
प्रतिदिन सुबह स्नान के लिए जाते हैं। उसका विचार था कि राम सीता को मरा हुआ मानकर
यह सोचकर लौट जाएँगे कि जब सीता ही नहीं रही तो सब कुछ व्यर्थ है।
बेंजवई रावण के कथनानुसार ऐसा ही करती है और राम शोकाकुल हो जाते हैं लेकिन
हनुमान भाँप जाते हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ है और वह यह कहते हुए कि यह शव ही तो है,
उसका दाह संस्कार करने को उद्धृत होते हैं। इस
पर बेंजवई उठ खडी होती है। हनुमान कहते हैं कि इस छल के कारण उसका वध करना उचित
होगा लेकिन जब राम को पता चलता है कि वह विभीषण की पुत्री है तो वह कहते हैं कि
मित्र की पुत्री अपनी पुत्री के समान होती है और उसे क्षमा कर देते हैं।
रावण की यह चाल जब विफल हो जाती है और राम हनुमान के निर्देशन में वानरों से
सागर पर पुल बनवाने लगते हैं तो रावण उन्हें लौटाने के लिए दूसरी चाल चलता है और
अपनी पुत्री सुवर्णमत्स्या से कहता है कि वह अपनी मत्स्यसेना लेकर जाए और पत्थरों
को रातोरात हटा दे। सुवर्णमत्स्या अपने पिता के कथनानुसार ऐसा ही करती है और
वानरों के दिन भर कडे़ परिश्रम के बाद उनके सो जाने पर सभी पत्थर हटवा देती है। जब
दो-तीन दिन इस तरह की घटना होती है तो हनुमान शंकित हो उठते हैं और यह जानकर कि
रात में ही यह सब होता है, खुद पहरेदारी
करने लगते हैं और सुवर्णमत्स्या को रंगे हाथों पकड़ लेते हैं। वह रावण की करतूतों
के बारे में उसे बताते हुए कहते हैं एक स्त्री होकर तुम एक स्त्री के दुख को क्यों
नहीं समझ पा रही हो। इस पर सुवर्णमत्स्या कहती है कि वह रावण की पुत्री है और पिता
के आदेश का पालन करना पुत्री का कर्तव्य है। हनुमान उससे कहते हैं कि यदि पिता कोई
अनुचित काम करता है तो पुत्री को उसमें शामिल नहीं होना चाहिए। इस बात से प्रभावित
होकर सुवर्णमत्स्या लौट जाती है और रावण की यह चाल भी विफल हो जाती है।
अपनी दोनों चालें विफल हो जाने के बाद रावण तीसरी चाल चलता है। वह भगवान
ब्रह्मा के पास पहुँच जाता है और उन्हें गलत जानकारियाँ देकर भ्रमित करने की कोशिश
करता है। ब्रह्मा उससे कहते हैं कि वह दूसरा पक्ष सुनने के बाद ही कोई फ़ैसला
करेंगे। बाद में श्रीराम की बात सुनने के बाद रावण की करतूतों को जानकर वह कुद्ध
हो जाते हैं और रावण को श्राप दे देते हैं, राम के हाथों ही तुम्हारा वध होगा। इस तरह रावण की यह कोशिश
भी नाकाम हो जाती है। इस प्रकार के अनेक बदलाव व नई कहानियाँ भी दक्षिण पूर्व की
रामकथा से जुड़ी हुई मिलती हैं।
भारतीय
संस्कृति में रामकथा का अद्भुत प्रभाव देखने को मिलता है। उपनिषदों, पुराणों
और स्मृति ग्रंथों से लेकर नृत्य, गायन और कथावाचन तक के विभिन्न कला रूपों में
यह हमारे लोक जीवन में पूरी तरह से रची-बसी है। विविधताओं से भरे इस देश में यह हर
क्षेत्र की स्थानीय परंपराओं का हिस्सा है।
पिछले दिनों ' इंदिरा गांधी नैशनल सेंटर फॉर द आर्ट्स '(आईजीएनसीए)ने देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसे संगठनों और सामुदायिक प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया, जो अलग-अलग शैलियों में रामकथा का वाचन, मंचन या प्रदर्शन करते हैं। छह महीने तक चले इस प्रोजेक्ट में उन लोगों ने अपनी-अपनी शैलियों का प्रदर्शन किया और उनकी विशेषताएं बताईं।
पिछले दिनों ' इंदिरा गांधी नैशनल सेंटर फॉर द आर्ट्स '(आईजीएनसीए)ने देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसे संगठनों और सामुदायिक प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया, जो अलग-अलग शैलियों में रामकथा का वाचन, मंचन या प्रदर्शन करते हैं। छह महीने तक चले इस प्रोजेक्ट में उन लोगों ने अपनी-अपनी शैलियों का प्रदर्शन किया और उनकी विशेषताएं बताईं।
इस पहल का मुख्य उद्देश्य यह था कि रामकथा की समृद्ध लोक
परंपरा को संजोया जाए। लेकिन इस दौरान रामकथा से जुड़े जितने प्रसंग देखने को मिले, वे
भारतीय जीवन में राम के चरित्र के व्यापक प्रभाव को उजागर करते हैं। जैसे असम की
राम-विजय की नाट्य परंपरा। इसे संत कवि शंकरदेव ने रचा था।
यह अंकिया नट और भावना शैली में मंचित की जाती है। यहीं रामकथा पर आधारित 'कुशन गान' नामक एक परंपरागत लोकनाट्य भी है, जिसका नाम राम-सीता के बेटे कुश पर रखा गया है। उत्तर पूर्व के ही मणिपुर में इसे जात्रा शैली में मंचित करने की परंपरा है। इसके अलावा वहां ढोलक की थाप के साथ खोंगजोम पर्व यानी गाकर रामकथा बांची जाती है। इसी तरह बीसी रामलीला उड़ीसा का एक लोकनाट्य है।
18वीं शती में विश्वनाथ कुंडिया की लिखी विचित्र रामलीला पर आधारित बीसी रामलीला में भक्ति भाव प्रमुख है, पर यह सांस्कृतिक चेतना भी जगाती है। जगन्नाथ मंदिर में मंचित की जाने वाली मुख्य जात्रा में भी रामकथा की झलक मिलती है। दरअसल उड़ीसा प्राचीन कौशल का हिस्सा हुआ करता था और माना जाता है कि उसकी सीमा के आसपास के इलाकों में ही रामायण काल की बहुत सी घटनाएं घटित हुई थीं।
लोकनाट्य की परंपरा गुजरात में भवाई, महाराष्ट्र में तमाशा और उत्तर प्रदेश में नौटंकी के रूप में जीवित है। रामकथा इन सभी में मौजूद है। इनके संगीत, अभिनय और नृत्य का हिस्सा बनकर वह सिर्फ भक्ति ही नहीं जगाती, लोकरंजन भी करती है।
बंगाल में जात्रा शैली में पुतुल नाच यानी कठपुतलियों के जरिए रामकथा कही जाती है। वहां के मुस्लिम पटुआ समुदाय में रामकथा को चित्रित करने की भी परंपरा है। चित्र लेकर वे गांव-गांव में रामकथा बांचने जाते हैं। अगर बंगाल में पुतुल है, तो केरल में छाया नाट्य तोल पावाकुट्टू। इसमें छाया के माध्यम से रामकथा कहने की परंपरा है। वैसे कथकलि में भी रामकथा के ही प्रसंगों को उठाया जाता है। कर्नाटक के यक्षगान, तमिलनाडु के तेरुक्कट्टु और केरल के ही कुट्टियट्टम के जरिए भी रामकथा को पेश किया जाता है।
कई राज्यों के परंपरागत लोकनृत्य में भी रामकथा को अपनी शैली में संगीतबद्ध किया गया है। छऊ ऐसा ही लोकनृत्य है। पुरुलिया और सरायकेला में खूबसूरत मुखौटों के जरिए कथा कही जाती है और मयूरभंज में नृत्य की भंगिमाओं से। रामकथा की वाचिक परंपरा भी अनेक प्रदेशों में है। अपनी-अपनी शैलियों में भजनों और गीतों के माध्यम से रामकथा के लोकप्रिय स्वरूप को जीवित रखा गया है।
आपको ताज्जुब होगा कि मेवात के मुस्लिम जोगियों ने अपने क्षेत्र में रामकथा की इस परंपरा को लोकप्रिय बनाया है। यहां निजामत मेव ने 360 साल पहले इन गाथा गीतों को संगीत में पिरोया था। बताया जाता है कि उन जोगियों को आश्रय देने वाले यह कथा लिखते थे और इन रमते जोगियों को दे देते थे। राजस्थान के मांगनिया समुदाय के भजनों में भी रामकथा मिलती है, लेकिन राम का संघर्ष जंगलों में नहीं, मरुभूमि के परिवेश में सिमटा है। इन रंगों से बिल्कुल अलग है कुमाऊं और गढ़वाल के बर्फीले पहाड़ों का धवल रंग।
यहां रामकथा शास्त्रीय रागों में ढलकर नृत्य नाटिका के रूप में मंचित की जाती है। यहां के परंपरागत लोकनाट्य रम्मन में केरल के कथकलि और बंगाल के पुरुलिया की तरह मुखौटों के साथ उसके प्रसंगों को पेश किया जाता है।
रामकथा की इन सभी शैलियों में उस क्षेत्र विशेष के परिवेश को खूबसूरती से उतारा गया है। वहां की प्रकृति, खान-पान, पहनावा और सामाजिक संरचना इन कथाओं में धड़कती है।
कहीं राम नायक हैं, तो कहीं दूसरे पात्र भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। भीलों का समाज मातृ प्रधान है, तो वहां सीता को अग्निपरीक्षा नहीं देनी होती। वनवास का आदेश मिलने पर राम उनसे आज्ञा लेते हैं। इसी तरह शास्त्रीय रामकथा से लोकप्रिय रामकथा कई बार अलग हो जाती है। मध्य भारत का एक समुदाय है बैगा। उसकी रामकथा में लक्ष्मण को अग्निपरीक्षा देनी होती है, जिसे लक्ष्मण जती कहा जाता है। कई कथाओं में लक्ष्मण मुख्य नायक भी बन जाते हैं। सीता कई कथाओं में काली का रूप ले लेती हैं और खुद रावण का वध करती हैं।
किसी क्षेत्र विशेष की परंपरा कौन बनाता है? नायकों को कौन खड़ा करता है? उस क्षेत्र के बाशिंदे। उन पर किसी नायक को थोपा नहीं जा सकता। अपने जीवन में उसे उतारने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। वे खुद अपने भीतर से अपने लिए नायक गढ़ते हैं। यही वजह है कि तमाम लोक शैलियों के नायक भी अपने ही लोक के परिवेश में सांस लेते हैं। उनकी संवेदनशीलता उस समाज से जुड़ी हुई होती है। हमने इस प्रोजेक्ट के दौरान महसूस किया कि हर क्षेत्र की रामकथा में वहां की मिट्टी की महक है।
उसे अपने अनुसार ढालने की आजादी सभी ने ली है। राम हर जगह अवतार नहीं, कहीं सांस्कृतिक नायक हैं और कहीं सामान्य इंसान भी। पत्नी का साथ न निभा पाने का विक्षोभ उन्हें होता है और रावण का दंभ चूर करने का संकल्प लेते हैं तो कई बार विचार करते हैं, अपनी ताकत का अंदाजा लगाते हैं। उत्तर पूर्व के ताई फेक समुदाय में राम बोधिसत्व हो जाते हैं और बुद्ध का संदेश फैलाते हैं।
रामकथा जिस मिट्टी में रोपी गई, अलग-अलग खुशबू वाले पौधों के रूप में पुष्पित-पल्लवित हुई, वहां की परंपरा, संस्कृति और जीवन का अंग बन गई। जिस प्रदेश में, जिस भाषा में सुनी गई, उसी के भीतर समाहित हो गई। रामकथा को उनसे अलग कर किसी एक जगह रोपने से लोक संस्कृति की वह धारा सूख जाए
यह अंकिया नट और भावना शैली में मंचित की जाती है। यहीं रामकथा पर आधारित 'कुशन गान' नामक एक परंपरागत लोकनाट्य भी है, जिसका नाम राम-सीता के बेटे कुश पर रखा गया है। उत्तर पूर्व के ही मणिपुर में इसे जात्रा शैली में मंचित करने की परंपरा है। इसके अलावा वहां ढोलक की थाप के साथ खोंगजोम पर्व यानी गाकर रामकथा बांची जाती है। इसी तरह बीसी रामलीला उड़ीसा का एक लोकनाट्य है।
18वीं शती में विश्वनाथ कुंडिया की लिखी विचित्र रामलीला पर आधारित बीसी रामलीला में भक्ति भाव प्रमुख है, पर यह सांस्कृतिक चेतना भी जगाती है। जगन्नाथ मंदिर में मंचित की जाने वाली मुख्य जात्रा में भी रामकथा की झलक मिलती है। दरअसल उड़ीसा प्राचीन कौशल का हिस्सा हुआ करता था और माना जाता है कि उसकी सीमा के आसपास के इलाकों में ही रामायण काल की बहुत सी घटनाएं घटित हुई थीं।
लोकनाट्य की परंपरा गुजरात में भवाई, महाराष्ट्र में तमाशा और उत्तर प्रदेश में नौटंकी के रूप में जीवित है। रामकथा इन सभी में मौजूद है। इनके संगीत, अभिनय और नृत्य का हिस्सा बनकर वह सिर्फ भक्ति ही नहीं जगाती, लोकरंजन भी करती है।
बंगाल में जात्रा शैली में पुतुल नाच यानी कठपुतलियों के जरिए रामकथा कही जाती है। वहां के मुस्लिम पटुआ समुदाय में रामकथा को चित्रित करने की भी परंपरा है। चित्र लेकर वे गांव-गांव में रामकथा बांचने जाते हैं। अगर बंगाल में पुतुल है, तो केरल में छाया नाट्य तोल पावाकुट्टू। इसमें छाया के माध्यम से रामकथा कहने की परंपरा है। वैसे कथकलि में भी रामकथा के ही प्रसंगों को उठाया जाता है। कर्नाटक के यक्षगान, तमिलनाडु के तेरुक्कट्टु और केरल के ही कुट्टियट्टम के जरिए भी रामकथा को पेश किया जाता है।
कई राज्यों के परंपरागत लोकनृत्य में भी रामकथा को अपनी शैली में संगीतबद्ध किया गया है। छऊ ऐसा ही लोकनृत्य है। पुरुलिया और सरायकेला में खूबसूरत मुखौटों के जरिए कथा कही जाती है और मयूरभंज में नृत्य की भंगिमाओं से। रामकथा की वाचिक परंपरा भी अनेक प्रदेशों में है। अपनी-अपनी शैलियों में भजनों और गीतों के माध्यम से रामकथा के लोकप्रिय स्वरूप को जीवित रखा गया है।
आपको ताज्जुब होगा कि मेवात के मुस्लिम जोगियों ने अपने क्षेत्र में रामकथा की इस परंपरा को लोकप्रिय बनाया है। यहां निजामत मेव ने 360 साल पहले इन गाथा गीतों को संगीत में पिरोया था। बताया जाता है कि उन जोगियों को आश्रय देने वाले यह कथा लिखते थे और इन रमते जोगियों को दे देते थे। राजस्थान के मांगनिया समुदाय के भजनों में भी रामकथा मिलती है, लेकिन राम का संघर्ष जंगलों में नहीं, मरुभूमि के परिवेश में सिमटा है। इन रंगों से बिल्कुल अलग है कुमाऊं और गढ़वाल के बर्फीले पहाड़ों का धवल रंग।
यहां रामकथा शास्त्रीय रागों में ढलकर नृत्य नाटिका के रूप में मंचित की जाती है। यहां के परंपरागत लोकनाट्य रम्मन में केरल के कथकलि और बंगाल के पुरुलिया की तरह मुखौटों के साथ उसके प्रसंगों को पेश किया जाता है।
रामकथा की इन सभी शैलियों में उस क्षेत्र विशेष के परिवेश को खूबसूरती से उतारा गया है। वहां की प्रकृति, खान-पान, पहनावा और सामाजिक संरचना इन कथाओं में धड़कती है।
कहीं राम नायक हैं, तो कहीं दूसरे पात्र भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। भीलों का समाज मातृ प्रधान है, तो वहां सीता को अग्निपरीक्षा नहीं देनी होती। वनवास का आदेश मिलने पर राम उनसे आज्ञा लेते हैं। इसी तरह शास्त्रीय रामकथा से लोकप्रिय रामकथा कई बार अलग हो जाती है। मध्य भारत का एक समुदाय है बैगा। उसकी रामकथा में लक्ष्मण को अग्निपरीक्षा देनी होती है, जिसे लक्ष्मण जती कहा जाता है। कई कथाओं में लक्ष्मण मुख्य नायक भी बन जाते हैं। सीता कई कथाओं में काली का रूप ले लेती हैं और खुद रावण का वध करती हैं।
किसी क्षेत्र विशेष की परंपरा कौन बनाता है? नायकों को कौन खड़ा करता है? उस क्षेत्र के बाशिंदे। उन पर किसी नायक को थोपा नहीं जा सकता। अपने जीवन में उसे उतारने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। वे खुद अपने भीतर से अपने लिए नायक गढ़ते हैं। यही वजह है कि तमाम लोक शैलियों के नायक भी अपने ही लोक के परिवेश में सांस लेते हैं। उनकी संवेदनशीलता उस समाज से जुड़ी हुई होती है। हमने इस प्रोजेक्ट के दौरान महसूस किया कि हर क्षेत्र की रामकथा में वहां की मिट्टी की महक है।
उसे अपने अनुसार ढालने की आजादी सभी ने ली है। राम हर जगह अवतार नहीं, कहीं सांस्कृतिक नायक हैं और कहीं सामान्य इंसान भी। पत्नी का साथ न निभा पाने का विक्षोभ उन्हें होता है और रावण का दंभ चूर करने का संकल्प लेते हैं तो कई बार विचार करते हैं, अपनी ताकत का अंदाजा लगाते हैं। उत्तर पूर्व के ताई फेक समुदाय में राम बोधिसत्व हो जाते हैं और बुद्ध का संदेश फैलाते हैं।
रामकथा जिस मिट्टी में रोपी गई, अलग-अलग खुशबू वाले पौधों के रूप में पुष्पित-पल्लवित हुई, वहां की परंपरा, संस्कृति और जीवन का अंग बन गई। जिस प्रदेश में, जिस भाषा में सुनी गई, उसी के भीतर समाहित हो गई। रामकथा को उनसे अलग कर किसी एक जगह रोपने से लोक संस्कृति की वह धारा सूख जाए
[2] इंटरनेट पर अभिव्यक्ति ई पत्रिका में प्रकाशित आलेख : http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/sanskriti/2009/ramkatha.htm
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धन्यवाद