भारतीय साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष -
रोहिताश्व
आर्य आदिवासियों द्वारा आर्येत्तर संस्कृति और परंपरा का आत्मसात किया जाना एक
लम्बी ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया का परिणाम है. आर्यों और द्रविड़ों के सामाजिक-
आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन में विकास और आत्मसातीकरण की दीर्घ प्रक्रिया के
परिणामस्वरूप ब्रह्मा, विष्णु (आर्य) और शिव-पार्वती (द्रविड़) की त्रयी कर्मकांड,
स्थापत्य और अराधना रूप में स्वीकृत हुई. इस सांस्कृतिक विलयन के स्वरुप,
प्रक्रिया और परिणाम की विवेचना गहराई से के. दामोदरन, राधाकमल मुखर्जी, भगवतशरण
उपाध्याय, राहुल सांकृत्यायन, डी.डी. कोशाम्बी, रविन्द्रनाथ टैगौर, रामविलास शर्मा
और देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय आदि ने सम्यक रूप से की है.
मध्ययुगीन दौर में भारतीय
साहित्य के स्वरुप में एक अभूतपूर्व परिवर्तन लक्षित होता है. सूफी विचारधारा और
इस्लाम के आगमन से 9वीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक जाति परिवर्तन, धर्म
सम्बन्धी आस्था, वर्ण और वर्ग के निषेध की भावना विभिन्न भारतीय भाषाओँ के साहित्य
में उपलब्ध होती है जिसका श्रेय सिद्ध-नाथों की परंपरा और उससे भी पूर्व काल से
प्रवाहित चार्वाक- परंपरा द्वारा ब्राह्य आडम्बर व् कर्मकांड के निषेध एवं 11वीं
शताब्दी में शैव-लिंगायत दर्शन और 13वीं शताब्दी के ज्ञानेश्वर को दिया जाना चाहिए
जिसका परिवर्ती विकास हमें नामदेव, तुकाराम, कबीर, सर्वज्ञम और वेमन्ना के कृतित्व
में दिखाई देता है.
मध्ययुगीन भारतीय साहित्य
रिनेसां यानि पुनर्जागरण काल का साहित्य कहलाता है. यह साहित्य है- इश्वर-ब्रह्म
की सत्ता के सामने मानवमात्र की अस्मिता के वरन का साहित्य, जाति-धर्म, आस्था का
वैविध्य और वर्ण-वर्ग की विषमता के निषेध का साहित्य. यह सब 6-7वीं सदी में तमिल
के आलवारों और नयनारों द्वारा घटित होकर कर्नाटक, महाराष्ट्र , गुजरात, राजस्थान
में प्रसारित होते हुए 13-14वीं सदी में कश्मीर में फैल जाती है और 15-16वीं सदी
तक मध्य देश को अपने घेरे में ले लेती है. श्री चैतन्य के फलस्वरूप भक्ति के इस
रूप का नवरूपायण होता है और बंगाल, असम, मणिपुर में इस आन्दोलन का प्रसार होता है.[1]
भक्ति
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