संगीत एवं नृत्य का इतिहास
Ø संगीत
का इतिहास
“संगीत
है शक्ति ईश्वर की हर सुर में बसे हैं राम
रागी जो सुनाये राग
मधुर, रोगी को मिले आराम।”
भारत में देवी
देवताओं से ले कर साधारण मानवों तक हर किसी के जीवन में संगीत किसी ना किसी रूप
में जुडा हुआ है। संगीत-रहित जीवन की कलपना केवल नारकीय जीवन के साथ ही करी जा
सकती है। गायन, वादन तथा नृत्य तीनों
कलाओं को संगीत की परिभाषा के अन्तर्गत ही माना गया है।
लिखित कला और विज्ञान
के क्षेत्र में हिन्दुस्तानी संगीत का स्थान विश्व में प्राचीनतम है। संगीत को
विज्ञान तथा कला, दोनो
के क्षेत्र में समान महत्व मिला है। जैसे दैविक शक्तियों को शस्त्रों के साथ जोडा
गया है उसी प्रकार संगीत के वाद्य यंत्रो और नृत्यों को भी देवी देवताओं के साथ
जोडा गया है। भगवान शिव डमरू की ताल के साथ ताँडव नृत्य करते हैं,
तो
देवी सरस्वती वीणा वादिनी हैं। भगवान विष्णु के प्रतीक कृष्ण वँशी की तान सुनाते
हैं और रास नृत्य भी करते थे। देवऋषि नारद तथा राक्षसाधिपति रावण वीणा वादन में
पारंगत हैं। गाँडीवधारी अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुधर होने के साथ साथ नृत्य शिक्षक भी
हैं। अप्सराओं तथा गाँधर्वों का तो संगीत कला के क्षेत्र में विशिष्ठ स्थान हैं। भारत
में देवी देवताओं से ले कर जन साधारण तक सभी का जीवन संगीत मय है। हर कोई संगीत को
जीवन का मुख्य अंग मानता है।
संगीत के प्राचीन
ग्रन्थ
सामवेद के अतिरिक्त
भरत मुनि का ‘नाट्य-शास्त्र’
संगीत
कला का प्राचीन विस्तरित ग्रंथ है। वास्तव में नाट्य-शास्त्र विश्व में
नृत्य-नाटिका (ओपेरा) कला का सर्व प्रथम ग्रन्थ है। इस में रंग मंच के सभी अंगों
के बारे में पूर्ण जानकारी उपलब्द्ध है तथा संगीत की थि्योरी भी वर्णित है। भारतीय
संगीत पद्धति में ‘स्वरों’
तथा
उन के परस्परिक सम्बन्ध, ‘दूरी’
(इन्टरवल) को प्राचीन काल से ही गणित के माध्यम से बाँटा और
परखा गया है। नाट्य-शास्त्र में सभी प्रकार के वाद्यों की बनावट,
वादन
क्रिया तथा ‘सक्ष्मता’
(रेंज) के बारे में भी जानकारी दी गयी है।
वाद्य यन्त्र गायन का
अनुसरण और संगत करते थे। वादक ऐकल प्रदर्शन (सोलो परफारमेंस) के अतिरिक्त
जुगलबन्दी (ड्येट), तथा
वाद्य वृन्द (आरकेस्ट्रा) में भी भाग लेते थे। वाद्य वृन्द में ‘तन्त्र-वाद्य’
(मिजराफ से बजाये जाने वाले), ‘तत-वाद्य’
( गज से बजाये जाने वाले) ‘सुश्रिर-वाद्य’
(बाँसुरी आदि) तथा ‘घट-वाद्य’
ताल
देने वाले वाद्य) आदि सभी वाद्य सम्मिलित थे। आज के सिमफनी आरकेस्ट्रा में भी
वाद्यों के मुख्य अंग यही होते है क्यों कि ‘ब्रास’
(ट्रम्पेट आदि) और ‘वुडविण्ड’
(कलारिनेट आदि) वाद्य भी सुश्रिर-वाद्यों की श्रेणी में आ
जाते हैं।
संगीत का विकास और
प्रसार
हिन्दू मतानुसार
मोक्ष प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य है। नाद-साधन (म्यूजिकल साउँड) भी मोक्ष
प्राप्ति का ऐक मार्ग है। नाद-साधन के लिये ऐकाग्रता, मन
की पवित्रता, तथा निरन्तर साधना की
आवश्यक्ता है जो योग के ही अंग हैं। आनन्द की अनुभूति ही संगीत साधना की
प्राकाष्ठा है। संगीत के लिये भक्ति भावना अति सहायक है इस लिये संगीत आरम्भ से ही
मन्दिरों, कीर्तनों (डिस्को),
तथा
सामूहिक परम्पराओं के साथ जुडा रहा है।
भारत का अनुसरण करते हुये पाश्चात्य देशों में भी संगीत का आरम्भ और विकास
चर्च के आँगन से ही हुआ था फिर वह नाट्यशालाओं में विकसित हुआ,
और
फिर जनसाधारण के साथ लोकप्रिय संगीत (पापुलर अथवा पाप म्यूज़िक) बन गया।
छन्द-गायन तथा
जातीय-गायन वैदिक काल से ही वैदिक परम्पराओं के साथ जुड गया था जिस का उल्लेख
महाकाव्यों, और सामाजिक साहित्य
में मिलता है। भारत में यह कला ईसा से कई शताब्दियाँ पूर्व ही पूर्णत्या विकसित हो
चुकी थी। इसी सामूहिक कंठ-गायन को पाश्चात्य जगत में कोरल संगीत कहा जाता है।
वैदिक छन्द-गायन की
परम्परायें लिखित थीं। छन्दोग्य उपनिष्द पुजारी वर्ग को समान गायन परिशिक्षण देने
का महत्वपूर्ण माध्यम था। ‘समन’
का
गायन और वीणा के माध्यम से वादन दोनो होते थे। मन्दिरों के प्राँगणों में नृत्य भी
पूजा अर्चना का अंग था। मन्दिरों से पनप कर यह कला राजगृहों तथा उत्सवों को सजाने
लग गयी और फिर समस्त सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बन गयी। मुस्लिम काल में संगीत
राज घरानों के मनोरंजन का प्रमुख साधन बन गया था।
प्रथम दशक में भारतीय
संगीत सम्बन्धी साहित्य के कई मौलिक ग्रँथ उपलब्ध हैं जिन से संगीत के विकास का
पता चलता है। सप्तवीं शताब्दी में मातँगा कृत ‘बृहदेशी’
ऐक
मुख्य ग्रँथ है जिस में प्रथम बार ‘राग’
का
वर्णन किया गया है। अन्य कृति शारंगदेव का ग्रंथ ‘संगीत-रत्नाकर’
है
जो तेहरवीं शताब्दी में लिखा गया था। इस में तत्कालिक शौलियों,
पद्धतियों
और परम्पराओं का विस्तरित उल्लेख है।
ईसा से 200-300 वर्ष
पूर्व पिंगल ने संगीत पद्धति के क्षेत्र में योग्दान दिया है। उस के आलेखों में
बाईनरी संख्या तथा ‘पास्कल-त्रिभुज’
का
आलेख भी मिलता है। संगीत के क्षेत्र में ‘श्रुति’
(ध्वनि का सूक्षम रूप जो सुना और अनुसरन किया जा सके) का
आधार वायु में आन्दोलन कारी तरंगें है जिन्हें ‘अनुराणना’
(टोनल हार्मनीज) कहा जाता है। दो या उस से अधिक श्रुतियों
को मिला कर स्वरों की रचना भारत के संगीतिज्ञ्यों ने करी थी।
राग पद्धति
हिन्दुस्तानी संगीत
पद्धति रागों पर आधारित है । रागों की उत्पत्ति ‘थाट’
से
होती है। थाटों की संख्या गणित की दृष्टि से ‘72’
मानी
गयी है किन्तु आज मुख्यतः ‘10’
थाटों
का ही क्रियात्मिक प्रयोग किया जाता है जिन के नांम हैं बिलावल,
कल्याण,
खमाज,
भैरव,
भैरवी,
काफी,
आसावरी,
पूर्वी,
मारवा
और तोडी हैं। प्रत्येक राग विशिष्ट समय पर किसी ना किसी विशिष्ट भाव (मूड –
थीम)
का घोतक है। राग शब्द सँस्कृत के बीज शब्द ‘रंज’
से
लिया गया है। अतः प्रत्येक राग में स्वरों और उन के चलन के नियम हैं जिन का पालन
करना अनिवार्य है अन्यथ्वा आपेक्षित भाव का सर्जन नहीं हो सकता। हिन्दूस्तानी
संगीत में प्रत्येक राग अपने निर्धारित समय पर अधिक प्रभावकारी होता है जबकि इस
प्रकार की समय-सारणी पाश्चात्य संगीत में नहीं है।
गायक हो या वादक,
वह
निर्धारित सीमा के अन्दर रह कर ही अपने
मनोभावों का संगीत के माध्यम से प्रदर्शन करता है। इस के साथ साथ वह संगत करने
वाले ताल वाद्य की समय सीमा में भी बन्धा रहता है। उसे का प्रदर्शन निर्धारित ‘आवृतियों’
में
ही कर के दिखाना होता है। इस की तुलना में पाश्चात्य संगीत में गीतों के लिये किसी
विशिष्ट समय की प्रतिबन्धित मर्यादा नहीं होती। समस्त पाश्चात्य संगीत भारत के
पाँच थाटों में समा जाता है। हिन्दुस्तानी संगीत में ‘धुन’
(मेलोडी) की प्रधानता रहती है जबकि पाश्चात्य संगीत में
संगत (हार्मनी) प्रधान है। दोनो का सम्बन्ध क्रमशः आत्मा और शरीर के जैसा है।
स्वर मालिका तथा लिपि
भारतीय संगीत
शास्त्री अन्य कई बातों में भी पाश्चात्य संगीत कारों से कहीं आगे और प्रगतिशील
थे। भारतीयों ने ऐक ‘सप्तक’
( सात स्वरों की क्रमबद्ध लडी – ‘सा
री ग म प ध और नि’ को
22 श्रुतियों (इन्टरवल) में बाँटा था जब कि पाश्चात्य संगीत में यह दूरी केवल 12
सेमीटोन्स में ही विभाजित करी गयी है। भारतीयों ने स्वरों के नामों के प्रथम अक्षर
के आधार पर ‘सरगमें’
बनायी
जिन्हें गाया जा सकता है। ईरानियों और उन के
पश्चात मुसलमानों ने भी भारतीय स्वर मालाओं (सरगमों) को अपनाया है।
स्वरों की पहचान के
लिये पाश्चात्य संगीतिज्ञों ने ग्यारहवीं शताब्दी में पहले ‘डो
री मी फा सोल ला ती’ आदि
शब्दों का प्रयोग किया, और
फिर ‘ला ला’,
‘मम’ ‘ओ ओ’
आदि
आवाजों का इस्तेमाल किया जिन का कोई वैज्ञानिक औचित्य नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय
समानता के विचार से अब पाश्चात्य संगीत के स्वर अंग्रेजी भाषा के अक्षरों से ही
बना दिये गये हैं जैसे कि ‘ऐ
बी सी डी ई एफ जी’ – लेकिन
उन का भी संगीत के माधुर्य से कोई सम्बन्ध नहीं। उन की आवाज की ऊँच-नीच और काल का
अनुमान स्वर लिपि की रेखाओं (स्टेव) पर बने अनगिनित चिन्हों के माध्यम से ही लगाया
जाता है। इस की तुलना में भारतीय स्वर लिपि को उन की लिखावट के अनुसार ही तत्काल
गाया और बजाया जा सकता है। स्वरों के चिन्ह भी केवल बारह ही होते हैं। अन्य कई
बातों में भी भारतीय संगीत पद्धति पाश्चात्य संगीत पद्धति से बहुत आगे है लेकिन उन
सब का उल्लेख करना सामान्य रुचि का विषय नहीं है।
भारतीय परम्पराओं का
पश्चिम में असर
पाश्चात्य संगीत की
थ्योरी के जनक का श्रेय यूनानी दार्शनिक अरस्तु को जाता है जो ईसा से 300 वर्ष
पूर्व हुये थे। अब पिछले कई वर्षों से पाश्चात्य संगीतज्ञ्य भारतीय संगीत की
परम्पराओं में दिलचस्पी ले रहे हैं। 22 श्रुतियों के भारतीय सप्तक को उन्हों नें
24 अणु स्वरों (माईक्रोटोन्स) में बाँटने की कोशिश भी करी है। वास्तव में उन्हों
ने अपने 12 सेमीटोन्स को दुगुणा कर दिया है। उस के लिये ऐक नया ‘की-बोर्ड’
(पियानो की तरह का वाद्य) बनाया गया था जिस में ऐक सफेद और
ऐक काला परदा (की) जोडा गया था परन्तु वह प्रयोग सफल नहीं हुआ। इस की तुलना में
भारत के उच्च कोटि के वादक और गायक 22 श्रुतियों का सक्ष्मता के साथ प्रदर्शन करते
हैं। सारंगी भारत का ऐक ऐसा वाद्य है जिस पर सभी माईक्रोटोन्स सुविधा पूर्वक
निकाले जा सकते हैं।
चतु्र्थ से छटी
शताब्दी तक गुप्त काल में कलाओं का प्रदर्शन अपने उत्कर्श पर पहुँच चुका था। इस
काल में संस्कृत साहित्य सर्वोच्च शिखर पर था और ओपेरानृत्य नाटिकाओं का भारत में
विकास हुआ। इसी काल में संगीत की पद्धति का निर्माण भी हुआ। उसी का पुनरालोकन
पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे ने पुनः आधुनिक काल में किया है जिसे अब हिन्दुस्तानी
संगीत पद्धति कहा जाता है। इस के अतिरिक्त दक्षिण भारत में कर्णाटक संगीत भी
प्रचल्लित है। दोना पद्धतियों में समानतायें तथा विषमतायें स्वभाविक हैं।
भारतीय संगीत को
जन-जन तक पहुँचाने में सिने जगत के संगीत निर्देशकों का प्रमुख महत्व है जिन में
संगीतकार नौशाद का योग्दान महत्वशाली है जिन्हों ने इस में पाश्चात्य विश्ष्टताओं
का समावेश सफलता से किया लेकिन भारतीय रूप को स्रवोपरि ही रखा।
Ø भारतीय
नृत्य कला का इतिहास
भारतीय नृत्य की
गौरवशाली परम्परा ईसा से 5000 वर्ष पूर्व की है।
भारत का सर्व प्रथम मान्यता प्राप्त नृत्य प्रमाण सिन्धु घाटी सभ्यता काल
की ऐक मुद्रा है जिस में ऐक नृत्याँगना को हडप्पा के अवशेषों पर नृत्य करते दिखाया
गया है। भारत के लिखित इतिहास में सिन्धु घाटी सभ्यता से 200 ईसा पूर्व तक की कडी
टूटी हुई है।
भरत मुनि रचित
नाट्यशास्त्र अनुसार देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना करी थी कि वह संसार को ऐक
ऐसी कला प्रदान करें जिस से वेदों का ज्ञान जनसाधारण में फैलाया जा सके। इस प्रकार
शिव ने चारों वेदों से कुछ कुछ अंश ले कर ‘पँचम-वेद’
की
रचना की जिसे ‘नाट्य’
कहा
गया। शिव ने ऋगवेद से ‘नाद’,
सामवेद
से ‘स्वर’,
अथर्व
वेद से ‘अभिनय’
तथा
यजुर्वेद से ‘गायन’
लिया।
इसी लिये शिव को प्रदर्शन कलाओं का आराध्य देव माना जाता है।
शिव के अनुरोध पर
पार्वती ने कोमल ‘लास्य’
शैली
नृत्य का सृजन किया तथा असुर राजकुमारी ऊषा को इस की शिक्षा दी। ऊषा ने उस शैली को
भारत के पश्चिमी भाग में प्रचिलित किया। इस शैली का प्रथम लास्य नृत्य इन्द्र के
विजय-ध्वजारोहण समारोह पर किया गया था। असुरों ने जब वह नृत्य देखा तो उन्हों ने
इसे नयी युद्धघोषणा समझ लिया तथा उन्हें ब्रह्मा जी ने समझा बुझा कर शान्त किया। ब्रह्मा
जी ने आदेश दिया कि भविष्य में लास्य नृत्य केवल पृथ्वी पर ही किया जाये गा।
विष्णु ने मोहिनी रूप
धारण कर भस्मासुर के साथ लास्य नृत्य किया था तथा मुद्राओं के दूारा उसी का हाथ उस
के सिर पर रखवा कर भस्मासुर को भस्म करवाया था। कृष्ण ने भी कालिया नाग मर्दन के
समय और गोपियों के साथ जो रास नृत्य किया था वह भी लास्य नृत्य का ही अंग माना
जाता है। शिव का अन्य नृत्य ताँडव नृत्य होता है जिस में रौद्र भाव प्रधान होता
है।
भरत मुनि रचित
नाट्य-शास्त्र की परिभाषानुसार नाट्य कला में मंच पर प्रदर्शित करने योग्य सभी
विषय नृत्य की श्रेणा में आते हैं जैसे कि नृत्य के साथ साथ नाटक और संगीत। संगीत
का नाट्य के साथ योग अवश्य है क्यों कि इस का नाटक में बहुत महत्व है।
नाट्य शास्त्रानुसार
नृतः, नृत्य,
और
नाट्य में तीन पक्ष हैं –
नृतः केवल नृत्य है
जिस में शारीरिक मुद्राओं का कलात्मिक प्रदर्शन है किन्तु उन में किसी भाव का होना
आवश्यक नहीं। यही आजकल का ऐरोबिक नृत्य है।
नाट्य में शब्दों और
वार्तालाप तथा संवाद को भी शामिल किया जाता है।
भारत में कई
शास्त्रीय नृत्य की की शैलियाँ हैं जिन में ‘भरत-नाट्यम’,
‘कथक’, ‘कथकली’,
‘मणिपुरी’, ‘कुचीपुडी’
मुख्य
हैं लेकिन उन सब का विस्तरित वर्णन यहाँ प्रसंगिक नहीं।
इस के अतिरिक्त कई
लोक नृत्य हैं जिन में गुजरात का ‘गरबा’,
पंजाब
का ‘भाँगडा’
तथा
हरियाणा का ‘झूमरा’
मुख्य
हैं। सभी लोक नृत्य भारतीय जन जीवन के किसी ना किसी पक्ष को उजागर करते हैं
प्रमाणित करते हैं कि भारतीय जीवन पूर्णत्या संगीत मय है।
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