दक्षिण भारत का धार्मिक इतिहास
आधुनिक विद्वानों ने इन आर्येत्तर द्रविड़ देवताओं को आर्य देवताओं से अभिन्न मानने की चेष्टा की है. उदाहरण के लिए, वे मायन को विष्णु और वेंदन को इंद्र मानते हैं. परन्तु संघीय साहित्य में इस सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता. इसका अर्थ यह नहीं है कि दक्षिण  भारत के लोगों और उनके देवताओं का उत्तर भारते के प्रतिरूपों से कोई संबंध था. आर्य और अर्येत्तर संस्कृतियों ने अवश्य ही एक-दुसरे को प्रभावित किया था. ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के अंत में ही उनमें पारस्परिक संपर्क और संबंध में नज़र आते थे. और ईस्वी सन के प्रारम्भ में ये संबंध और भी दृढ हो गये है. ऐसी परिस्थिति में ही दक्षिण में जैन और बौद्ध धर्म का प्रचार होने लगा. उन्होंने धर्म, साहित्य और संस्कृति को ही प्रभावित नहीं किया, अपितु राजनीति को भी प्रभावित किया. बहुत से राजाओं ने बौद्ध या जैन धर्म का क्षय होने लगा. इसी काल में तीन सामंतशाही राजकुल, अर्थात बदमी में चालुक्य, कांची में पल्लव और मदुरै में पांड्य अपनी-अपनी पूर्ण सत्ता स्थापित करने के लिए जूझ रहे थे. इसी काल में शैव और वैष्णव जैसे हिन्दू धर्म के नए पंथ आगे आये, जिन्होंने बौद्ध और जैन धर्मों को निष्काषित कर दिया.
          शैव और वैष्णव सम्प्रदायों का उद्भव किस प्रकार हुआ, वह भलीं भाँती ज्ञात नहीं है. कुछ विद्वानों के अनुसार इन प्रतिस्पर्धी धार्मिक पंथों का उद्भव ब्राहमणों और क्षत्रिय की उस वर्ग सपर्धा के फलस्वरूप हुआ, जो उत्तर भारत में वैदिक काल के अंतिम दिनों में आरम्भ हुई थी. उस समय वैदिक धर्म का क्षय होने लगा था. विष्णु ब्राह्मणों के मुख्य देवता बन गए थे और शिव क्षत्रियों के. महभारत मे लिखा है कि शैव और वैष्णव धर्म “विराट जनता की श्रद्धा को आपस में बाँट लेते हैं”.[1] इस महाकाव्य में इसका भी उल्लेख मिलता है कि सनातनी ब्राहमणों का एक भाग शिव-पूजा का विरोध करता था. ईसवी सन की प्रथम शताब्दियों के कुछ कुशान राजा शिव के भक्त थे. उन्होंने “शिव की मूर्ति या त्रिशूल और नंदी जैसे उनके प्रतीकों को अपने सिक्कों पर छपवाया भी”.[2] परन्तु ईसवी सन की तीसरी और चौथी शताब्दियों में , नव-ब्राह्मणवाद के उदय के साथ, हम वैष्णव धर्म का भी उत्थान देखते हैं. गुप्त शासक विष्णु के परम भक्त थे.
          दक्षिण भारत में छठी शताब्दी में या उसके आस-पास जो शैव और वैष्णव सम्प्रदाय आर्विर्भुत हुए. उनका मूल स्रोत चाहे जो भी रहा हो, यह एक अटल सत्य है कि उत्तर भारत के उन समानांतर धर्मों में से ये बिलकुल भिन्न थे, जो वैदिकपुर्वक, वैदिक तथा वैदिकोत्तर काल में प्रचलित थे. दक्षिण में वे सारतः धार्मिक आन्दोलन थे, जो बौद्ध और जैन धर्म के विरोध में आरम्भ हुए थे और वहां उन्होंने सामंतवाद के युग का सूत्रपात किया.
          शैव सम्प्रदाय के साथ ही वैष्णव सम्प्रदाय भी फल-फूल रहा था. परंपरा के अनुसार बारह वैष्णव संत थे जो आलवार कहलाते थे. इनमें नम्मालावार सबसे लोकप्रिय थे. इन वैष्णव संतों के भक्ति गीतों का संग्रह ‘नालायिप्रबन्धम’ अथवा ‘दिव्यप्रबन्धम’ कहलाता है. ये संत विष्णु को परम सत्य तथा त्रिमुर्तियों के नेता मानते थे. आलवारों के अनुसार मोक्ष विष्णु भक्ति पर ही निर्भर था. कर्मकांड अथवा यज्ञों पर नहीं.वैष्णव धर्म का सबसे मुख्य सिद्धांत विष्णु की एकान्तिक भक्ति था; प्रत्येक व्यक्ति को किसी फलेच्छा के बिना भी अपना कर्त्तव्य भी करना होता है. वैष्णव सम्प्रदाय ने इस बात पर जोर दिया है कि इश्वर सबके लिए गम्य है, उसके लिए जांत-पांत की कोई बाधा नहीं है. इस मामले में यह नया धर्म अधिक जनतान्त्रिक था. वैष्णव सम्प्रदाय के रहस्मय गीतों में ईश्वर का प्रायः एक प्रेमी के रूप में चित्रण किया जाता था. वैष्णव संत मानते थे कि अनवरत प्रार्थना और भक्ति से यह मानव शरीर भगवान का बसेरा बन जाएगा.
          पतनोन्मुख बौद्ध और जैन धर्मों की परम्पराओं का अनुकरण करके बहुत से हिन्दू मंदिर, मठ और पाठशालाएं (धार्मिक प्रवचनों के स्थान) देश के भिन्न-भिन्न भागों में स्थापित की गयी. कभी कभी बौद्धों और जनियों         



[1] महादेवन, टी.पी.एम्., ‘महादेवन: दि एज ऑफ़ इम्पीरियल यूनिटी, पृष्ठ. 457
[2] उक्त, पृष्ठ 456 

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