उस रात तेरी वो बात मुझे याद है
जब तुने रच डाली थी मुझ पर कविता
प्रकृति के समस्त उपादानों के साथ
कर दिया था मुझे सम्मिलित

जिस दिन तुने किया वह कार्य
चांदनी को घोल पी  गई थी तुम
रात को लपेट तुमने अलमारी मैं डाला  था
जुगनुओं का प्रकाश बुझा दिया था
स्वप्नों के केसे तुमने वश मैं किया था
यह क्रांति केसे जन्मी तुम्हारे भीतर

जब गुजरा था तेरे भीतर मैं
हर मुसाफिर मुझसे टकराया था
एक मोड़ था वहां
जहा सड़के हंसने लगी थी
एक रास्ता मुद गया था बीहड़ मैं
एक रास्ता सघन जंगलों मैं खो गया था
पर जहाँ कुछ नहीं था वहां प्रकाश क्यों

खीच हाथों को अपने
भीतर से स्वार्थ को निचोड़ा मेने
हथोडा लेकर हाथों मैं
तोड़ता गया हर दीवार को
हवा जेसे खेल रही थी
मेने एक पल रुककर उसे फटकारा
तो बंद कर दिए किवाड़ उसने
मेरी आकाँक्षाओं ने बहुत खटखटाया
पर अंधेरों ने आवाज़ मारी
जा वापस जा
पहले वो कमल बनकर आ
जो कीचड़ मैं भी पवित्र है
पहले वो आकर लेकर आ
जो मूर्ति मैं भी आस्थावान है
पहले वो पल जी कर आ
जिसमे जमी हुई परतों का दर्द है
खड़ा रह उस मंच पर
जहाँ दर्शक तुझ मैं मिल जाये
बहता रह दरिया बन
जब पूरी प्रकृति तुझमे समां जाये

तू मेरे भीतर के संसार मैं तभी प्रवेश करेगा
जब तू खुद मैं जाग जायेगा
जब नाप आयेगा परिंदा बन
सम्पूर्ण आकाश को
तब लोट आना
मेने स्नेह तुझ पर बदल बन बरस जायेगा

मैं सोंप दूंगी तुझे
अपने भीतर का "सच "..................

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