"द्वन्द"
"द्वन्द"
जब भी तुझमे खोजता हूँ
अपने भीतर के प्रश्नों को
तो तेरा मुझमे होना
एक द्वन्द सा लगता है
तनाव की रेखा बन जाती है
तेरे मेरे हाथो पर
फिर आरंभ होता है
आत्ममंथन का वह दौर
जो हमसे होकर सभी से जुड़ जाता है
जब जब चांहू तो बस तुझे ही चांहू
तेरे लम्हों से एक पल चुराऊं
बीत जाऊं वो पल नहीं
हल हो जाऊं वो प्रश्न नहीं
फेल जाऊं वो फलक नहीं
तेरी आँखों से यु ही बह जाऊं
ऐसी धरा नहीं
छोड़ दू तो वह तेरा सेहर नहीं
तू कहती मुझसे
केसे सोप दू तुम्हे जिसे मेने सत्रह वर्षा संभाला
न मैं धकेल सकती तुझे वहां
जिसे तेरी दुनिया कहती मधुशाला
समय ने मुझको
लाल चादर मैं ओढा दिया
तुम मेरी ओढ़नी में
दर्द के धब्बे धुन्धने लगे
मेरा स्नेह
अब भी तुम्हे कटाने सा लगता है
वो जगह जहाँ हम मिलना चाहते थे
अब तुम्हे वहां बीहड़ का सूनापन दीखता है
मेरी हाथों की चूडियो मैं
तुम धुन्धने लगे घुटन की आकृति
चाहत का यह बदलाव
क्या उस बिखरे हुए पालो के कारण है
या कोई आवाज़ है
जो भीतरी कमरों से आ रही है
कोई है ,कोई तो है
जो हकीकत से तुम्हे जोड़ता है
हाँ मैं दूर होता जा रहा हु
मुझे तेरी चाहत से बेर यु तो नहीं
पर मैं खुद मैं मरता जा रहा हु
मेरी आवाज़ की कपकपाहट
मेरी संन्सो की गति
तुम्हे सब दंस्तान कहना चाहती है
उन उचैयो से मैं धुलक रहा हु
उन राहों मैं लोट रहा हूँ
जहाँ तुम्हारी चाहत
केवल परछाई मात्र रह जाएगी
मेरी संवेदनाओं का आकाश
दंगो की लपटों
बालक के आंसुओं
वृक्षों के दर्द
जीवन की चिंता मैं
बदल बनकर घिर आया है
मैं तुझ पर बरस नहीं सकता
न बिग सकता हु तेरे सूखे अधरों को
तेरे आँखों से बहते प्रवाह का
मुर्दा हाथो की ल्ककिरो पर
मैं तुम्हारा भाग्य भी नहीं लिख सकता
मुझे लोटना होगा
बढ़ना होगा
उन पग्दंदियो पर सुनना होगा
उन आवाजों को
जिसे भुला दिया था मेने
तेरी बनाई दुनिया मैं
एक रात जो ढालना भूल गई थी
वो कोहरा जो
दर्पण पर बस गया था
वेह सुइयां
जो तेरे कहने पर चलती थी
वो सोच
जिसे मेने सिमित कर दिया था
तेरे जीवनब के पन्नो तक
अब हाथ उठेंगे
पर तेरे लिए नहीं
मेरी पलके झुकेंगी
पर तेरे लिए नहीं
मैं देखूंगा
पर तुझे नहीं
मैं चलूँगा
जरुर चलूँगा
पर उन टूटे घरो को जोड़ने के लिए
उन सपनों को बदलने के लिए
उन आंसुओं को रोकने के लिए
उस मुस्कान को ठहरना सिखाऊंगा
मेरे हाथों ने
जिन कागज़ के टुकडो को तक़दीर मन
आज वाही हाथ लाल किताबे थमेगी
तेरे बुने स्वेटर की जगह
खून मैं नहाये चादर को ओढूंगा
रंग दूंगा
धक् दूंगा
सभी घरोई को बदलाव की छतों से
मेरे कलम ने
मुझसे कुछ माँगा है
मेरे प्रिसथा ही
मुझे नकारते है
मेरा लक्ष्य
चीख चीख कर पुकार रहा है
पिता की आँखों मैं
वो स्वप्न जो सुख गया था
मेरी माँ के हाथ
जो सिमट गए थे खुद मैं
मेरा शहर मेरा गाँव
जो काफी पीछे छुट गया था
सभी चाहते है
मुझमे नई सुबह
कब तक रातो का पहरा
मेरे जीवन पैर लगता रहेगा
कब तक मैं खुद से
छुपता रहूँगा
मेरे भीतर का सत्य
वह संसार
जो बनाया था सिर्फ मेने तुहारे लिए
वहां सिर्फ आकाश से गिरते सपने थे
कब तक आशा की डोर थामे कहता रहता
"दो नैना मत खइयो मोहे पियन मिलन की आस "
तुम भी तो खो गई थी
ब्रमांड की आकाश गंगाओं मैं
कल्पित गह मैं बेठी थी तुम
भूलना मेरी फितरत सी बन गई थी
इसलिए तो भुला चूका था
भीतरी दुनिया को
खारीपन को भरने की लालसा
मुझे और धकेले जाती थी
भीतर ,
धरा की गर्त में
परतों में ढक रहा था मैं
फिर वह रौशनी
खीच सी लाइ
तुम्हारे भीतर से मुझको
न जाने वह आवाज़ कहाँ से आई
जिसने झकझोर दिया मुझको
मेरी अंतरात्मा को
चेहरे दर चेहरे
हटते चले गए मुझ पर से
मेरे भरते घावों
से मवाद बहने लगा
एक वीरान सा जंगल
धुप उतरती धरा पर
हवाओं को सहलाते पेड़
पत्तों की सरसराहट
नयापन था यहाँ
नया ?
किस तरह का नयापन था यह ?
आखिर कहाँ था मैं ?
यहाँ सब कुछ
कुछ चिर परिचित से लग रहे हैं मुझको
स्मृतियाँ जेसे गेट खटखटा रही हो
वहां क्या है ?
कुछ तो है ?
पर क्या ?
वही है जो था
जो नहीं मिल पाया मुझसे
हकीकत है यह
वो जो दूर कड़ी परछाई है
वह कुछ कुछ
मुझ सी ही प्रतीत हो रही है ....................................................
रचनात्मक उपलब्धि पर बधाई ...इसी तरह रेचते रहिये ...और श्रोता को सीचते रहिये ....सादर ..
जवाब देंहटाएंdhanywaad ji
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