वणी जैसे और भी लोकनृत्य हैं महाराष्ट्र में | |
देश
के पश्चिमी तट पर बसा महाराष्ट्र एक विशाल राज्य है। यहां अनेक
संस्कृतियों और रीति रिवाजों वाले लोग रहते हैं। ये लोग भिन्न-भिन्न प्रकार
के वस्त्र पहनते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यंजन खाते हैं और अपने समाज
की स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के नृत्य करते हैं। यहां मनाए
जाने वाले सभी पर्व, त्यौहार और उत्सवों में नृत्य अपनी विशेष अहमियत रखते
हैं। कहा जाता है कि नृत्य अभिव्यक्ति का सबसे अच्छा माध्यम है। ऐसे में
किसी राज्य की संस्कृति से रूबरू होने के लिए वहां की लोकनृत्य कलाओं को
जानने से बेहतर तरीका और क्या हो सकता है। महाराष्ट्र में विभिन्न प्रकार
के लोकनृत्य किए जाते हैं। तो चलिए जानते हैं महाराष्ट्र के लोकनृत्यों के
बारे में और रूबरू होते हैं इस राज्य की अलौकिक संस्कृति से।
महाराष्ट्र के लोकनृत्यों की यदि बात की जाए तो लावणी
नृत्य सबसे पहले जहन में आता है। लावणी महाराष्ट्र का एक अत्यंत प्रसिद्ध
लोकनृत्य है। लावणी शब्द ‘लावण्य‘ से बना है जिसका अर्थ होता है
सुन्दरता। रंग-बिरंगी भड़कीली साड़ियों और सोने के गहनों से सजी, ढोलक की
थापों पर थिरकती लावणी नृत्यांगनाएं इस नृत्य कला के नाम को सार्थक करती
हुए दशर्कों को वशीभूत कर लेती हैं। 9 मीटर लम्बी पारम्परिक साड़ी पहनकर और
पैरों में घंुघरू बांध कर सोलह श्रृंगार किए जब ये नृत्यांगनाएं खूबसूरती
से अपने जिस्म को लहराती हैं और दर्शकों को निमंत्रित करते भावों से उकसाती
हैं तो दर्शक मदहोश हुए बिना नहीं रह पाते। माना जाता है कि इस नृत्य कला
का आरंभ मंदिरों से हुआ है जहां देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नृत्य और
संगीत का आयोजन किया जाता था। इसमें नृत्य के साथ साथ पारंम्परिक गीत भी
गाए जाते हैं। गीत का विषय धर्म से लेकर प्रेम रस, कुछ भी हो सकता है।
लेकिन इस नृत्य कला में अधिकतर गीत प्रेम और वियोग के ही होते हैं। लावणी
नृत्य दो प्रकार का होता है- ‘निर्गुणी लावणी और श्रृंगारी लावणी।
निर्गुणी लावणी मंे जहां आध्यात्म की ओर झुकाव होता है वहीं श्रृंगारी
लावणी श्रृंगार रस में डूबा होता है। बॉलीवुड की अनेक फिल्मों में भी लावणी
पर आधारित नृत्य फिल्माए गए हैं।
महाराष्ट्र की एक अन्य लोकप्रिय लोककला है तमाशा। तमाशा
नाटक का ही एक रूप है। इसकी शुरूआत महाराष्ट्र में 16वीं सदी में हुई। यह
लोककला यहां की अन्य कलाओं से थोड़ी अलग है। तमाशा शब्द का अर्थ
‘मनोरंजन‘ होता है। कुछ शोधकर्ता का मानना है कि संस्कृत के नाटक
रूपों-प्रहसन और भान से हुई है। इस लोककला के माध्यम से महाभारत और रामायण
जैसी पौराणिक कथाओं को सुनाया जाता है। इसमंे ढोलकी, ड्रम, तुनतुनी,
मंझीरा, डफ, हलगी, कडे, हारमोनियम और घुंघरुओं का प्रयोग किया जाता है।
तमाशा मुख्य रूप से महाराष्ट्र के ‘कोल्हाटी‘ समुदाय द्वारा किया जाता
है। इस कला को प्रस्तुत करने के लिए किसी मंच इत्यादि की आवश्यकता नहीं
होती है। इसे किसी भी खुले स्थान पर किया जा सकता है। तमाशा के शुरु होते
ही सबसे पहले गणेश वंदना होती है। इसके बाद गलवाना या गौलनियर गाए जाते
हैं। मराठी धर्म- साहित्य में ये कृष्णलीला के रूप हैं जिसमें भगवान कृष्ण
के जन्म की विभिन्न घटनाओं को दर्शाया जाता है। नृत्य श्रृंखलाओं के अलावा
तमाशा में नटुकनी, सौंगद्या और अन्य चरित्रों द्वारा अनेक प्रकार के शब्दिक
कटाक्षों और कूट प्रश्नांे द्वारा वाद-प्रतिवाद भी किया जाता है। नटुकनी
का चरित्र महिलाएं निभाती हैं। इस लोककला में यमन, भैरवी और पिलु
हिन्दुस्तानी राग मुख्य रूप से प्रयोग किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य
लोकगीतों का भी प्रयोग किया जाता है। इसके अंत में सदैव बुराई पर अच्छाई और
असत्य पर सत्य की विजय का संदेश दिया जाता है। तमाशा महाराष्ट्र में
प्रचलित नृत्यों, लोककलाओं इत्यादि का नया आयाम देता है। यह अपने आप में एक
विशिष्ट कला है।
धनगरी गजा यहां का एक अन्य लोकनृत्य है। यह नृत्य
सोलापुर जिले की गडरिया जाति के लोगों द्वारा किया जाता है जिन्हें यहां
धनगर कहते हैं। ये लोग भेड़ बकरियां चराते हैं और इनकी जिंदगी अधिकांश रूप
से प्रकृति के आसपास ही बीतती है। इसके प्रभाव की झलक इनके गीतों में भी
दिखाई देती है। ये गीत शायरी के रूप में होते हैं। इनमें से कुछ में इस
जाति के लोगों के देवता ‘बिरुबा‘ की कहानियां कही जाती है जिन्हें
‘ओवी‘ कहते हैं। मुख्य रूप से इस नृत्य को देवताओं को प्रसन्न करने के
लिए ही किया जाता है। धोती, अंगरखा और पारंपरिक पगड़ी पहनकर अपने हाथों में
रंग-बिरंगे रुमाल लिए हुए ढोल की आवाज पर गोले में नृत्य करते ये लोग
दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर लेते हैं।
गंढार नृत्य विदर्भ क्षेत्र का एक लोकप्रिय नृत्य है।
इस क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश लोगों का व्यवसाय कृषि है। खेतों में जब
फसल कट जाती है और घर अनाज से भर जाते हैं तब किसान अपनी खुशी का इजहार
करने के लिए ‘पोला‘ त्यौहार मनाते हैं। इस त्योहार के दौरान यह नृत्य
किया जाता है और बैलों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उन्हें
मिठाई खिलाई जाती है। इस नृत्य में रामायण और महाभारत जैसी पौराणिक कथाएं
सुनाई जाती हैं। इसमें तुनतुनी, हारमोनियम और ढोलक जैसे वाद्यों की धुन पर
नृत्य किया जाता है। पहले इस नृत्य में पुरुष ही महिलाओं का पात्र अदा किया
करते थे लेकिन अब महिलाएं स्वयं इसमें भाग लेने लगी है।
कोली यहां का एक अन्य लोकनृत्य है। जैसा कि नाम से ही
प्रतीत होता है यह नृत्य कोली जाति के मछुआरों द्वारा किया जाता है। इन
लोगों की रंग बिरंगी पोशाक, खुशमिजाज, व्यक्तित्व और विशिष्ट पहचान उनके
नृत्य में भी झलकती है। महिलाएं और पुरुष दोनों इस नृत्य में भाग लेते हैं।
और दो समूहों में या जोड़ों में बंट कर नृत्य करते हैं। इस नृत्य की एक खास
मुद्रा है हाथों में छोटी-छोटी पतवारें पकड़कर नाव खेने का दृश्य उत्पन्न
करना। इसके अलावा लहरों की गति और मछली पकड़ने के लिए जाल फेंकने की मुद्रा
भी इस नृत्य की खासियत है। कोली नृत्य में महिलाएं अपनी पारम्परिक घुटनों
तक चढ़ी हुई हरे रंग की साड़ी पहनती हैं। और पुरुष पारंपरिक लुंगी पहनते हैं
जो आगे से तिकोने आकर की होती है। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में यह
नृत्य खासतौर से किया जाता है। यह नृत्य अन्य लोकनृत्यों की तुलना में अधिक
लयबद्ध होता है। लावणी की तरह बॉलीवुड में इस नृत्य का भी कई बार प्रयोग
किया गया है। ‘बॉबी‘ फिल्म का प्रचलित गीत ‘झूठ बोले कौवा काटे‘
इसी नृत्य पर आधारित है।
मराठवाड़ा क्षेत्र के लोकप्रिय दिंडी और कला महाराष्ट्र
के आध्यात्मिक लोकनृत्य हैं। दिंडी को एकादशी के दिन किश जाता है। कार्तिक
मास की एकादशी को यह नृत्य मुख्य रूप से किया जाता है। दिंडी एक प्रकार का
जुलूस होता है जिसमें अनेक लोग भाग लेते हैं। इसमंे भगवान कृष्ण की
बाल-लीलाओं को दर्शाया जाता है। इसमें एक गायक और एक पखावज बजाने वाला होता
है जिसकी थाप पर नर्तक थिरकते हैं। दिंडी की ही भांति कला में भी कृष्ण
भगवान के शरारती, नटखट स्वभाव को दर्शाया जाता है। इस नृत्य मंे दही की
मटकी फोड़ने के कृष्ण भगवान के बचपन के पसंदीदा खेल को प्रदर्शित किया जाता
है। कुछ नर्तक अपने साथियों के कंधों पर चढ़कर ऊपर लटकी दही की भटकी को फोड़
देते हैं।
महाराष्ट्र में ठाणे-नंदुरबार जिलों में कई आदिवासी
लोकनृत्य लासेकप्रिय हैं। पावरा नृत्य मुख्य रूप से महाराष्ट्र के
केन्द्रीय जिले धुलिया के आदिवासियों द्वारा किया जाता है। इसमें प्लेटों
पर डंडियों के वादन से धुन निकाली जाती है। इसके अलावा ढोल का प्रयोग भी इस
नृत्य में किया जाता है। राज्य के उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र में पहाड़ी
इलाकों में कोकना जनजाति द्वारा किया जाने वाला तरफा नृत्य भी एक लोकप्रिय
आदिवासी नृत्य है। इसमें सूखे हुए करेले से बनी हुई बीन की धुन पर नर्तक एक
दूसरे की कमर पर हाथ रखकर नृत्य करते हैं।
इस प्रकार ये लोकनृत्य अपने आप में एक संस्कृति को
सहेजे हुए हैं। इनके माध्यम से जहां उस समुदाय की संस्कृति को समझा जा सकता
है वहीं उनके रोजमर्रा के कार्यों की झलक भी इनमें देखने को मिलती है। एक
ओर लावणी और कोली का कर्णप्रिय और लयबद्ध संगीत और आकर्षक मुद्राएं दर्शकों
का मनोरंजन करती हैं तो दूसरी ओर धनगरी गजा, दिंडी, कला और तमाशा इस राज्य
की संस्कृति के साथ जुड़ने को विवश कर देती हैं।
स्रोत : http://webvarta.com/script_detail.php?script_id=4186&catid=11
|
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