नाच कांच ह बात सांच ह…इतिहास के अंधकार में गुम होने की ओर ‘नाच’
नाच कांच ह बात सांच ह…इतिहास के अंधकार में गुम होने की ओर ‘नाच’
(नागा जैसे अनगिनत गुमनाम कलाकारों के लिये
जिन्होंने अरसे तक सिज्जत झेल कर असंख्य जनता का मनोरंजन किया)
उम्र की मार से जर्जर हुए उस शरीर की लोच आज भी वहीं है. नाच का नाम सुनते ही आंखों की चमक बढ़ जाती
है. वो शान से आपको बतायेंगे कि कैसे मुजफ़्फ़रपुर की बाई जी ने
उनसे हार मान लिया था. दर्शकों ने बाई जी के नाच की बजाय उनका
नाच देखना अधिक पसंद किया और कितना इनाम उन्हें मिला.
नागा के नाम से मशहुर नागेन्द्र हजरा और अब नागेन्द्र पासवान की एक जमाने में
इलाके में तूती बोलती थी. नाच में भीड़ जुटाने के लिये उनका नाम ही काफ़ी था. उनको
अपने दल में शामिल करने के लिये बार नाच पार्टियों के बीच झगड़ा हो चुका है.
आज नागा ने अपने बाल कटवा लिये हैं. नाती और पोतों से भरा हुआ परिवार है.
खेती गृहस्थी करते हैं. और साल में बस एक दिन छठ
के मौके पर गांव के कुछ चुंनिदा लोगों के घर जाकर कोसी[1] के सामने नाचते हैं.क्योंकि बरसों से वहीं लोग उनके सुख
और दुख के साझीदार हैं ‘बाकिर गांव में त बहुते भूप लोग बा’(वैसे तो गांव में बहुत बड़े बड़े लोग हैं)
नागेन्द्र के जीवन में
आज नाच नहीं है लेकिन उनका जीवन नाच से ही निर्मित हुआ है. उनका
जीवन और उनके जैसे असंख्य कलाकारों का जीवन बनाने वाला नाच आज मरणासन्न है.
नाच बिहार और यु.पी के पुर्वांचल इलाके का एक प्रसिद्ध
और लोकप्रिय नाट्य रूप है, और लोगों के मनोरंजन का बड़ा साधन रहा
है. भोजपुरी के प्रसिद्ध नाटककार भिखारी ठाकुर की प्रेरणा का
स्रोत एक तरफ़ लीलानाट्य था तो दूसरी तरफ़ नाच. वस्तुतः उन्होंने
नाच को ही अपना आकार दिया. नाच में खेले जाने वाले पाठों[2] को वे स्वंय लिखने लगे. और इसके मंच को भी उन्होंने अपने हिसाब से परिवर्तित किया. लेकिन कैसे ? यह जानने के लिये नाच के रंग रूप को
आइये देख लेते हैं.
नाच अथवा लौंडा नाच[3] . ये विद्या कैसे शुरु हुई इसका ठीक ठीक तो
पता नहीं लगाया जा सकता लेकिन अनुमान किया जा सकता है. क्योंकि
यह जानने के लिये ना लौकिक स्रोत बचे हैं और ना लिखित मिलता है.
इस विधा का जन्म भी उन सभी लोकनाटकों या परम्पराशील नाटकों की तरह हुआ होगा
जो संस्कृत नाटक परंपरा के बंद होने के बद संपूर्ण भारत में उदित हुआ. इन नाटकों के मुख्य दो प्रकार हैं.
पहला धार्मिक व्यवहार की तरह खेले जाने वाले नाटक जैसे- रामलीला, रासलीला, यक्षगान कुट्टियाट्टम इत्यादि.ये रूप अधिकतर मंदिरों के सरंक्षण में पले. दुसरा रूप
उन नाटकों का है जिसका धर्म से रिश्ता इस रूप में नहीं है. यह
आम जनता के सरंक्षण से और उनके मनोरंजन की भूख को मिटाने के लिये विकसित हुआ
. साथ ही इसमें एक सामाजिकता भी थी. प्रदर्शन दल
के सदस्य समाज के सदस्य होते थे. इसलिये इसे जनता ने अपनाया.
नौटंकी तमाशा, नाचा ,माच
, खयाल इत्यादि ऐसे नाटक हैं नाच भी ऐसा ही नाट्य रूप हैं. नाच के उद्भव की कहानी को नाचा या नौटंकी के उद्भव की कहानी से समझा जा सकता
है. नाचा छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध नाटय रूप है जिसे हबीब तनवीर ने
विश्वप्रसिद्ध कर दिया.
नाचा का उद्भव संगीत और नृत्य से हुआ है. नृत्य संगीत और गम्मत इसके तीन अंग हैं. गम्मत बीच में आने वाले प्रहसनों को कहते हैं. शादी विवाह
या अन्य अवसरों पर होने वाले सामाजिक कार्यक्रम में लोग मनोरंजन के लिये नाच गाना का
कार्यक्रम आयोजित करते थे. खड़े होकर बजाने वाले वाद्यों के बाद
धीरे धीरे हार्मोनियम, ढोलक, तबला,
चिकारा, जैसे बैठ कर बजाये जाने वाले वाद्यों का
आगमन हो गया. रात बिताने या नाचने वाली परियों[4] को आराम देने केलिये बीच बीच में गम्मत होने लगा. धीरे
धीरे पुरी कहानी को खेला जाने लगा. यह कहानी आपसी विचार और सहयोग से तैयार होता था.
इस तरह से धीरे धीरे यह संगठित नाट्य रूप बनता गया.[5]
नाच का उद्भव भी कुछ ऐसे ही हुआ होगा. बिहार में हुड़का, पंवरिया, नेटुआ जैसे खड़ा होकर नाचने वाले और बजाने वाले नाट्य रूप मिलते हैं. नाच गाने की परंपरा में प्रहसन जुड़ा
होगा और धीर धीरे कहानी का पाठ होने लगा होगा. बाद में यह संगठित
रूप लेते चला गया होगा.
नाच का संबंध नौटंकी से भी जुड़ा है जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोकप्रिय नाट्य
शैली है. नौटंकी के बारे में कहा जाता है कि राजकुमारी
नौटंकी और फूल सिंह की कथा का नाटकीय शैली में प्रदर्शन से इस विधा का विकास हुआ बाद
में इससे और भी कहानियां जुड़ती चली गई.[6]
नाच में नाचा और नौटंकी का रूप पाया जाता है. बिहार और उत्तर प्रदेश में यह स्वतंत्र विधा के रूप में विकसित
हुई. इसके विकास का एक और कारण यह बताया जा सकता है कि इन क्षेत्रों
में नौटंकी कंपनी यात्रा
कर अपना प्रदर्शन किया करती थी. इन नौटंकियों से प्रभावित होकर
स्थानीय लोगों ने इसी आधार पर अपना नाट्य दल बनाया होगा. नाच
गाने की परंपरा, लीला नाटकों की परंपरा को मिलाकर इसकी शुरुआत हुई
होगी. बगल के प्रदेश बंगाल के यात्रा का प्रभाव भी इसके मंचीय
स्वरूप पर दिखता है. विदापत नाच जैसी कुछ विधायें भी इसकी पुर्ववर्ती
लगती है.
नाच का प्रांरभ अन्य
सभी नाट्य रूपों की तरह देव वंदना से होता है. वंदना के बाद उदघोषक
कार्यक्रम की रूपरेखा से दर्शकों का परिचय कराता है. उसके बाद
महिला बने पुरुष नर्तक अपना नॄत्य दिखाते हैं गायन भी वे खुद करते हैं. यह कुछ देर तक चलता है. सभी नाट्यदलों में ऐसे तीन चार
या उससे अधिक भी नर्तक होते हैं. पहले नाच में ग़ज़ल, खेमटा, ठुमरी, चैता, कजरी इत्यादि होते थे लेकिन फ़िल्मी गीतों के आगमन के बाद ये गीत अपदस्थ हो
गये.[7] गाना गा कर नाचने की परंपरा में रिकार्डिंग डान्स जुट गया. अर्थात पार्श्व मेम बज रहे संगीत पर
नृत्य करना.
नाच में एक महत्त्वपूर्ण पात्र है जोकर. यह विदुषक की तरह का पात्र है. जो नृत्य
के बाद आता है और एक प्रहसन दिखाता है. अपने हास्य व्यंग्य और
अनुठी हाज़िरजवाबी से यह दर्शकों का मनोरंजन करता है, इम्प्रोवाइजर
भी ये गज़ब के होते हैं. हंसी हंसी में ही गंभीर बात भी कह डालते
हैं. कालांतर में अश्लील चुटकुलों और द्विअर्थी संवादों ने जोकर
के अभिनय पर अपना कब्ज़ा जमा लिया. नाच का दारोमदार बहुत कुछ जोकर
के प्रदर्शन पर होता है. नाच पार्टियों मे वह सबसे मंहगा कलकार
हो सकता है. जोकर द्वारा प्रहसन प्रस्तुत किये जाने के बाद पाठ
होता है. यह पाठ सुबह तक चलता है. इस पाठ
में नाटक खेला जाता है.
नाच में खेले जाने वाले पाठों को देख कर इनके नौटंकी
से संबंध का पता चलता है. नाच में खेले जाने वाले पाठ जैसे सुल्ताना
डाकु, लैला मजनु, सत्य हरिश्चंद्र,
अमर सिंह राठौड़ इत्यादि प्रसिद्ध नौटंकिया हैं. नाच के कलाकार
भी बताते हैं कि उनके खेले जाने के लिये किताब कानपुर से मंगाया जाता था. ध्यातव्य हो कि कानपुर और हाथरस नौटंकी के दो मुख्य केंद्र थे. नाच में नौटंकी के नाटकों के अलावा अन्य नाटक भी खेले जाते थे. जो कभी स्थानीय लोगों द्वारा गढ़े जाते थे. भिखारी ठाकुर
ने इन्हीं पाठों को लिखा. उनकी पार्टी में उनके लिखे नाटक खेले
जाते थे. बाद में कुछ फ़िल्मों का नाटकीय प्रदर्शन भी इस पाठ में
होने लगा.
नाच का मंच का स्वरूप बहुत खुला होता
है. यह मुख्यतः एक शामियाने के अंदर खेला जाता है. शामियाना की सरंचना ऐसी होती कि उसके भितरी घेरे के अंदर के चार खंबे ऐसे लगे
रहते हैं कि एक वर्ग बन जाये. यहीं वर्ग नाच का मंच है.
इस वर्ग के लगभग चारों ओर दर्शक बैठते हैं. एक
ओर कलाकारों के प्रवेश प्रस्थान के लिये रास्ता छोड़ दिया जाता है. इस वर्ग के बाहरी किनारों पर वादक बैठते हैं जिन्हें समाजी कहते हैं.
इसके अंदर प्रदर्शन होता है. हारमोनियन,
नगाड़ा, क्ल्येरनाट, बैंजो,
ढोलक, नाल इत्यादि नाच के वाद्य यंत्र है.
ड्रम सेट भी बाद में इसके वाद्यों में शामिल हो गये हैं. नौटंकी के नक्कारे की तरह इसमें भी नगाड़ा कार्यक्रम की शुरुआत का सूचक होता
है. बदलते समय के साथ नाच के मंच में भी बदलाव हो रहा है.
अब मचान बांध के उस पर खेल होता है और सामने से दर्शक देखते हैं.
नाच में तीन तरह के कलाकार होते हैं. पहला है नर्तक या नर्तकी जिसे लोक भाषा में नचनिया कहते हैं. नचनिया पुरुष ही बनते हैं.
नचनिया बनाने के लिये पहले नाच दल के मुंशी और मालिक गांव गांव घूम के
योग्य लड़कों को चुनते थे और फिर उनको प्रशिक्षित करते थे. विपरित
यौनिकता को धारण करते हुए भी ये लोग सामान्य पुरुष का जीवन जीते थे. अलबत्ता उनके चाल ढाल में स्त्रीत्व का समावेश हो जाता था. नचनिया, गायन, नृत्य और अभिनय में
दक्ष होते हैं.
दूसरे प्रकार के कलाकार को एक्टर कहा जाता है. ये नाच में होने वाले पाठ में पुरुष पात्र
की भूमिका निभाते हैं. एक्टर गायन और अभिनय में प्रशिक्षित होते
थे. स्वतंत्र एक्टरों के अलावा उम्रदराज नचनिया भी एक्टर बन जाया
करते थे. जोकर भी इन्हीं में से एक था.
तीसरे कलाकार थे समाजी. वादकों को समाजी कहा जाता था. इसके अलावा नाच के संचालन
या उसके सामान की देखभाल के लिये भी समाजी लोग रहते हैं.
नाच दल के मालिक वार्षिक अनुबंध पर कलाकारों को रखते हैं. टीम की मुख्य कमाई लगन और पर्व त्योहारा के महिनों में
होती है. किसी समारोह और पारिवारिक उत्सव के मौके पर इन्हें बुलाया
जाता है. इन मौको पर नाच पार्टी तय रकम पर कार्यक्रम करने का
अनुबंध करती थी. इसे साटा या सट्टा बांधना कहते हैं. इस तरह से यह रंगमंच व्यावसायिक है. इसके कलाकारों की कमाई का मुख्य
जरिया नाच ही रहा है. सामाजिक कार्यक्रमों में या कम सामाजिक
हैसियत वाले लोग इनको बुलाते थे. वैसे लोग जो बाई जी का कार्यक्रम
नहीं रख सकते थे. नाच का कार्यक्रम रखते थे. बाई जी का नाच देखने में सामाजिक निषेध था लेकिन नाच देखने में नहीं.[8] अपने सामाजिक हैसियत का प्रदर्शन
करने के लिये संपन्न
लोगों द्वारा कुछ विशेष
ख्याति वाले नाच दल को बुलाया जाता था.
साल के कुछ महिनों में खासकर बरसात के महिनों में नाच दल खाली होता है. यह समय था जब ये लोग अभ्यास करते हैं.,
पाठ तैयार करते हैं. खेती बारी करने वाले कलाकार
भी कुछ महिने घर रहकर अभ्यास के लिये लौट जाते थे. पहले अधिकांश
कलाकार निरक्षर थे. अतः दल का कोई पढ़ा लिखा आदमी सबको पढ़ पढ़ के
सुना कर अभ्यास कराता था.[9] इसी अभ्यास के आधार पर साल भर प्रदर्शन
होता था.
समय के साथ इस रंगमंच में बहुत बदलाव आ गया. तकनीक, आर्केस्ट्रा, मनोरंजन की बदलती परिभाषा, वैश्वीकरण इत्यादि के एक साथ
प्रहार से नाच का शामियाना उखड़्ने लगा. इस संबंध में यह बात दिलचस्प
है कि सिनेमा ने इस विधा को इतना नुकसान नहीं पहूंचाया बल्कि इसे सहयोग ही दिया.
सिनेमा के गीतों और कहानियों ने इसे और लोकप्रिय ही बना दिया.
इन गीतों को भी इसने दूर दराज के गांव तक पहूंचा दिया. उखड़ने से बचने के लिये नाच ने हर प्रकार का समझौता किया. अश्लीलता का इतना अतिरेक होने लगा कि सामान्य दर्शक इससे दूरी बनाने लगा.
आर्केस्ट्रा के प्रसार से भी इसे नुकसान हुआ. आर्केस्ट्रा
के आगमन के बाद पुरूष नर्तकी का मुकाबला महिला नर्तकी से हो गया. नफ़ासत पसंद बाई जी को पसीना छूड़ा देने वाले इन नचनियों ने देह दिखाउ आर्केस्ट्रा
की लड़कियों के आगे हथियार रख दिये. नारी देह की तुलना में पुरूष
देह का भाव कम हो गया. नचनियों से बढ़ते छेड़ छाड़, सामाजिक अस्वीकृति और तिरस्कार ने भी नये लोगों को इस पेशे में आने से रोका.
मंहगाइ ने भी कलाकारों को अन्य रोजगार के साधन की ओर भेज दिया.
मंहगाई के इस दौर में कोई भी कलाकार नाच में रहकर अपना पेट नहीं पाल
सकता. धीरे धीरे नाच पार्टियां बंद होती गईं. और जो बची हैं वह जैसे तैसे चल रही हैं. इन नाच पार्टियों
को बुलाने वाले लोग भी आर्केस्ट्रा बुलाने लगे. नाच दल का पालन
पोषण के बढ़ते खर्च ने मालिकों को पार्टी बंद करने के लिये विवश कर दिया.
इस नाट्य रूप की तरफ़ सरकार ने भी कोई ध्यान नहीं दिया. समाज में इसके प्रति लोगों का भावनात्मक
जुड़ाव वैसा नहीं हुआ. मध्यवर्गीय सौंदर्यबोध
की कसौटी पर यह खरा नहीं उतर सका. नाच दल के अधिकांश कलाकार समाज के निम्न तबके से संबंधित थे इसलिये अभिजात
तबके ने इसे हेय विधा माना और हेय विधा माने जाने के बाद निम्न वर्गीय तबके के लोगो
ने भी इसमें काम करने वालों को सम्मान नहीं दिया. नाचदल में किसी
के शामिल हो जाने की बात ही घर के सदस्यों के लिये अपमाजनक हो गई. किसी जमाने में मनोरंजन के मुख्य साधन रहे नाच से लोग अपने को जोड़ने में अपनी
तौहीन समझने लगे. आर्केस्ट्रा
और डीजे के जमाने में बेचारे नाच को कौन पूछे! जिस समाज में यह
पनपा उसी समाज के लोग इससे पीछा छुड़ाने लगे तो दुसरा कौन इसे पूछता?
भिखारी ठाकुर ने भी नाच के स्वरूप में व्यापक परिवर्तन कर अपना मंच विकसित कर
लिया था. पहले उन्होंने नाच में खेले जाने वाले पाठ
की जगह अपने पाठ लिखे और उन्हें खेला. खेल का स्वरूप अलबत्ता
वहीं था गीत संगीत से युक्त कथा की नाटकीय प्रस्तुति. इन पाठों
का आधार को उन्होंने अपने समाज से लिया और अपने मंच को युग चेतना से भी जोड़ा. हाशिये के लोगों की पीड़ा की अभिव्यक्ति उनके पाठों
में है. मंच के स्वरूप में बदलाव करत्ते हुए उन्होंने समाजियों
को पीछे बैठाया और उनके समाने की जगह को मंच्न के लिये रखा, दर्शक
इसके सामने होते थे. मंच का पीछे का हिस्सा तैयार होने के लिये
था. इस मंच व्यवस्था पर प्रेसिनेयम मंच और रामलीला के मंच का
प्रभाव देखा जा सकता है. भिखारी ठाकुर के इस मंच को ‘बिदेसिया’ शैली कहा गया जबकि यह नाच शैली है और
‘बिदेसिया’ उनका एक नाटक है. आधुनिक कलाकर बिरादरी का ध्यान भिखारी
ठाकुर के मंच की ओर गया लेकिन किसी ने नाच के फ़ार्म को समझने की कोशिश ही नहीं की और
ना उसे कोई आकार देने की पहल की. धीरे धीरे ही सही यह मृत्यु
की ओर बढ़ रहा है.
आईये फिर नागा पर लौटते हैं. जीवन भर नाच से नाम और धन कमाने वाले नागा को उनके जीवन के
उत्तरार्द्ध में उनके घर के लोग ही उन्हें उपेक्षित करने लगे. ये जानते हुए कि नाच उनके जीवन का आधार है, उनके बच्चो
को यह स्वीकार करने में शर्म आने लगी कि उनके पिता नचनिया हैं. उनके बच्चों की इस भावना के लिए वे ही नहीं समाज भी जिम्मेदार है जो एक कलाकार
को इज्जत देना नहीं जानता. उसका नचनियापन और उसकी जाति उसकी पहचान बन गई.
उसकी कला ऐसे पहचान में दब गई. भोजपुरी समाज के
क्षय के लिये यह मानसिकता भी बहुत हद तक जिम्मेवार नहीं है!
आखिर क्या बात है कि इस विधा के भोजपुरी ठाकुर को महान कहके उनका गुण गान हो
रहा है लेकिन उनके कला को जीवंत रखने वाले कलाकार निरंतर तिरस्कृत हो रहें हैं[10]. वैसे भिखारी ठाकुर का भी कम तिरस्कार नहीं हुआ. इनके
मूल्य को भी लोगों ने बाद में समझा तब जब बाहर के लोगों ने उनका आदर किया अपने समाज
के लिये तो वे भिखरिया थे. नागा कभी कभार मुझसे पुछते हैं नाच
का क्या होगा ? उन्होंने जो कुछ सीखा उसका क्या होगा
? नाच के उन कलाकारों का क्या होगा जो नाच के अलावा कुछ नहीं जानते
? मैं उनके सवालों पर चुप्पी लगा देता हूं क्योंकि जवाब नहीं है,
उन्हें खोजना है .
अमितेश कुमार
पीएच.डी.
हिन्दी, दि.वि.
[3]
नाच
के बारे में खोजने से भी कोई किताब नहीं मिली. देखे
हुए प्रदर्शनों,
नाच
दलों के मालिकों, कलाकारों से व्यक्तिगत बातचीत इस लेख
का आधार है.
[5]
नाचा
के बारे में जानकारी अनुप रंजन पाडे जी से मिली जिन्होंने नाचा पर शोध किया है.
इसके
अतिरिक्त मध्य प्रदेश आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल
से प्रकाशित होने वाली पत्रिका चौमासा के फ़रवरी
जुन 1988
के
अंक में दो लेख मिले.
·
नाचा छत्तीसगढ
का एक प्रमुख लोकनाट्य स्वरूप-निरंजन महावर
·
नाचा-असल की नकल से असल- नवल शुक्ल
[6]
नौटंकी के बारे में विस्तार से जानने के लिये पढें, हैनसन, कैथरीन.(1992) “ग्रांऊड्स फ़ार थियेटर”, मनोहर पब्लिशर्श,
दिल्ली
[7]
इसका उल्लेख नागा ने अपनी बातचीत में भी मुझसे किया. तीसरी कसम कहानी और फ़िल्म में हिरामन भी ऐसी ही चर्चा करता
है.
[8]
तीसरी कसम में हिरामन के सभी साथी आपस में तय करते हैं कि
नौटंकी देखने की बात वे किसी से नहीं करेंगे जबकि हिरामन हिराबाई को छोकरा नाच के बारे
में बताता है.
[10]
गोपेश्वर सिंह ने नटरंग में अपने लेख में नाच के कलाकार हुलचुलिया का वर्णन
किया है. इस लेख में भी लेखक ने कलाकारों की सामाजिक
स्थिति का वर्णन किया है. “हुलचुलिया” नटरंग-84, सं-रश्मि वाजपेयी अशोक
और वाजपेयी. सूत्रधार में संजीव ने विस्तार से भिखारी ठाकुर के
जीवन संघर्ष का संग्रह किया है जिससे उनकी सामाजिक स्थिति का पता चलता है.
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धन्यवाद