इंडिया हैबिटेट सेंटर में आयोजित भारतीय भाषाओं के उत्सव समन्वय का उद्घाटन भारतीय रंगमंच के दो प्रख्यातों डा. चन्द्रशेखर कम्बार और श्री रतन थियम ने किया. रतन थियम के उद्घाटन भाषण का सारांश यहां प्रस्तुत है. इसे अंग्रेजी से  अनुवाद करके उपलब्ध कराया है  विनीत कुमार ने.

सबसे पहले मैं इस देश की सभी भाषाओं और बोलियों का नमन करता हूं. उन सबों के प्रति सम्मान व्यक्त करता हूं जो इसमें शामिल हो रहे हैं. मैं कवि नहीं हूं लेकिन इसके प्रति जिज्ञासा शुरु से रही है. मैंने जिस समय मणिपुर की दो सबसे ज्यादा बिकनेवाली पत्रिका का संपादन किया, वो मणिपुरी के लिए पुनर्जागरण का दौर था. अपने एक उपन्यास से मिली करीब ढाई हजार रुपये के बूते यहां रा.ना.वि. में आ सका. किसी भी भाषा में व्यक्त विचार अनंत होते हैं. और सबसे बड़ी बात ये है कि ये भाषा ही व्यक्ति की पहचान को निर्मित करती है और भूमंडलीकरण के इस दौर में इस पहचान का होना बहुत जरुरी है. अगर मैं व्यक्तिगत रुप से बात करुं तो मैं लोक साहित्य का बहुत ही दीवाना रहा हूं. इसका दायरा बहुत ही विस्तृत है. इसमें मिथक,गीत,गुंजार सब कुछ शामिल है और ये सब मेरे प्रेरणा के स्रोत रहे हैं.
मैंने अपने अधिकांश नाटकों मे जो कुछ भी लिखा है उसमें आधुनिक और इस भाषा का समन्वय है. भाषा के इस रूप से एक अलग ही किस्म की चित्रात्मकता उभरती है. मेरे लिए परंपरा का मतलब कोई मरी हुई चीज नहीं है. ये बहते हुए पानी की तरह है. ये हमारी सांस्कृतिक सभ्यता का वो रुप है जो अर्थहीन नहीं है, उसमें बहाव है, प्रसार है. इसमें देश की सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक सारे पहलू शामिल हैं.मेरे लिए ये बहुत मुश्किल  और लगभग असंभव होगा कि मैं पूरा महाभारत और रामायण पढ़ूं. हमने उसे सुना और अपनी लोक परंपराओं के हिसाब से सुना. लोक परंपरा के गीतों में जो चित्रात्मकता है, गुंजार है, वो सबके सब बहुत ही रचनात्मक,कल्पनात्मक है और ये सब मेरे लिए परंपरा से जुड़ते हैं. और ये सब साहित्य के किसी भी रुप के महत्व को बढ़ाने के लिए, समृद्ध करने के लिए बहुत ही जरुरी होते हैं.
वरीलीवा..ये हमारे यहां कथा कहने की परंपरा है. हमारी कथाओं मेम परंपरा के हिसाब से हेर फ़ेर कर लिया जाता है . जैसे कि महाभारत का पात्र भीम  है जो कि बहुत चावल खाते है....लेकिन दक्षिण भारतीय संस्करण को देखें तो वहां इडली डोसा खाएंगे. पंजाब में सरसों की साग मक्के की रोटी. मैं अपने पिता को अपना गुरु मानता हूं जो ये सब बताते हैं कि कैसे कहानी को रोचक बनाया जाए बरीलीवा मेरे लिए महत्वपूर्ण संदर्भ रहा है. हमारी लोकपरंपराओं में समकालीनता को भी ज़ज़्ब कर लेने की क्षमता रही है. मैं इन सबों का आनंद लेता था और मेरे पिता सब बताते थे और उसे आज के संदर्भ से जोड़कर सुनाते.
साथियों, ये सब बातें मैं इसलिए कह रहा हूं कि हमारे पास एक मौखिक साहित्य हुआ करता था और उसमें हम अपने तरीके से रचनात्मकता को जोड़ते चले जाते थे और वो सारी कल्पनाएं हम अपने जीवनानुभवों से जोड़ते चले जाते थे. मैं कोई स्कॉलर नहीं हूं, मैं जो कुछ भी हूं, कह रहा हूं नाटक करते हुए जो अनुभव मिले हैं उसका हिस्सा है. नाटक करते हुए जो अनुभव मिले हैं, उसी से एक राय बनी है और मेरा मानना है कि अगर व्यक्त करने की जरुरत हम शिद्दत से महसूस करते हैं तो वहां रंगमंचीयता होगी. मैं भाषा की प्रकृति पर किसी भी तरह की बात नहीं कर सकता क्योंकि इसमें कई सारी चीजें जुड़ती है...उस पर लोग आगे बात करेंगे...बहुत सारी चीजें हैं, मैं अपने नाटक में अपनी भाषा समझने सीखने की कोशिश करता हूं, मणिपुरी भाषा बहुत ही कठिन भाषा है खासकर इसके उच्चारण में और अगर आप बहुत ही शुद्धता के साथ मणिपुरी बोलते हैं तो इसका मतलब है कि आप मणिपुरी नहीं है. मैं जब अपने नाटकों की भाषा गढ़ता हूं तो उस पर काम करना पड़ता है. अभिनेता पुरानी भाषा नहीं जानते, और उन्हें अभ्यास से वह सीखना पड़ता है. रंगमंच की  भाषा में रिदम, मीटर, भाव के अलावा सबके समझ में आये इसका भी खयाल भी करना पड़ता है. तो पुरात्तत्विक और आधुनिक भाषाओं का सम्मिश्रण भी करना पड़ता है.
मणिपुरी में स्पष्टता शब्दों और इसके टोन से आती है और अगर टोन स्पष्ट नहीं है तो वो स्पष्टता आ ही नहीं सकती. जैसे हिन्दी में ‘आप यहां आइए’ बहुत स्पष्ट है लेकिन मणिपुरी में ऐसा नहीं है. इसमें वर्णों और शब्दों को बहुत ही गंभीरता से बरतने की जरुरत पड़ती है. साथ ही कहते समय भावों से भी अर्थ बनता है.
मैं आपलोगों से एक अपील करना चाहूंगा कि भारत बहुभाषाओं का देश है. मैं चाहूंगा कि आप सब चीजों को एक-दूसरे की भाषा में भी मुहैया कराएं क्योंकि सबसे बड़ा सवाल है कि हम एक दूसरे को कितना और कैसे जान पाते हैं.  इसलिए जरूरत है कि अनुवाद हों प्राचीन ग्रंथो  से ले कर आधुनिक साहित्य भारतीय सभी भाषाओं में उपलब्ध हों. चुप हो जाने से पहले मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं.क्या हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था युवा पीढ़ी को इस तरह से शिक्षित कर पाती है कि वो अपने मातृभाषा में साहित्य,संस्कृति और कला का आनंद ले सकें और अपने पहचान से अवगत हो सकें? ऐसा कहा जा रहा है कि आज से तीस साल के अंदर मनुष्य़ अति दक्ष कम्प्युटर विकसित कर लेगा, जो मनुष्य की सम्मिलित क्षमताओं से भी अधिक होगा. इसके विकसित हो जाने के बाद मनुष्य को किसी और अविष्कार की आवश्यक्ता नहीं होगी. अकल्पनीय और समझ के परे भी वह हो सकता है. तब हम क्या करें, हम उस स्थिति पर बात कर सकते हैं जहां मानवीय बौद्धिकता और कृत्रिम बौद्धिकता को एकमएक करके सोचने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं ? और एक चमकीले भविष्य की आशा करें. धन्यवाद आपके धैर्य के लिये.

कोई टिप्पणी नहीं:

धन्यवाद