मुसाफिर
(कुछ कविताओं विचारो का संग्रह )


सोच


हथेलियों का स्पर्श
शांत वातावरण का सपर्श
कुछ कहती है मौन साधना
यही है हमारी सोच

दरवाजे की चोखट पर बेठा
पीपल की छाँव मैं बेठा
बेठा हिमालय की गोद मैं
जन्म ले रही थी सोच


बहते नदियों के संगीत मैं
दूर गडरिये के जीवन से
बंजारे के नीरस भविष्य से
जन्म लेती है सोच


जीवन की शुरुआत से अंत तक
पथ के लक्ष्य तक
मन की गहराइयों तक
समाई हुई है हमारी सोच

एकांत

किसी किवाड़ के पीछे
शांत चुपचाप खड़ा
मैं दूंध रहा था एकांत

समय को बार बार
ललकारती आँखों से
मैं पुच रहा था प्रश्न
कहा है एकांत ?

दूर किसी साहिल पर
लहरों को चुप करता
पूछ रहा था प्रश्न
कहा है एकांत ?

पलकों को कुछ दिलासा देकर
जब बिठा दिया जमी पर
तो उठा जवाब अचानक
हां यही है एकांत

वापस

क्या हर वर्ष की भांति
लोटेगा वसंत इस बार भी
क्या ले पायेगी मेरी भावनाए
हिलोरे नीरस पतझर के बाद

क्या फिरर पुन्हा पाम के पेड़
मुग्ध सांझ का सोंदर्य बिखेरेगी
क्या कोमल का संगीत
इस बार भी हवा मैं ठेरेगा

आज तुम्हारा आना
पतझर से नीरस जीवन मैं
अत्मिये वसंत की तरह है

क्या एक बार फिर तुम
बन कलर तितली
मेरे परागो को विकसित करोगी
एक बार फिरर पतंगे
मेरे समस्त आकाश को धक् लेंगे

क्या एक बार फिरर जन्म लेंगे
आशाओं के बिखरे फुल
क्या एक बार फिरर कचनार
योवन को ललकारेगा

क्या एक बार फिर
तुम्हारा छूना मेरे
प्रेम तरंगो को कंपनीत करेगा

समय

वो गलियों का सूनापन
धुंधला पड़ा दर्पण
मुझसे कह रहा है
यही से गुजरा था समय

वो शांत पड़ी मेज़
खली पड़ी सेज
मुझसे कह रही है
यही पर ठेहरा था समय

वो चक पर घुमाता
कल्पना को बनता
कह रहा था कुम्हार
यही पर निर्मित हुआ समय


वो सदियों से खड़ा
टाक रहा संसार को
नदियों के रूप मैं अश्रु बहता
कहता रहा
हां यही से उठा समय

पर मेरे लिए जब देखा
मेने अपने शुन्य हाथो को
तो जाना यही से गुजरा था समय ..

शाम

सुबह की कड़कती धुप
के पश्चात शाम की
रोनक दरवाज़े पर
दस्तक देती है

सूरज की किरणों से
आँख मिचोली के पश्चात
चन्दा की गहराइयो मैं
डूबने का मन होता है

एक खुबसूरत शाम
फेलाहे कड़ी है बाहें
तारो की छाया समेटने को
और कहने को हां,
सच मैं यह है खुबसूरत शाम

धुप _ठहराव

वो सुबह की दस्तक
एक धुप ठहरी मेरे आँगन मैं
जेसे ठहरता है मोती
पत्तो के मध्य सदियों से

वो म्सेहलाने आई है
मेरे जीवन के पहलुओ को
खोला दरवाज़ा तो पाया
मात्र एक रेखा ने परवेश पाया
दो तुक मैं देखता रहा किरण को
धुल के कण विचार रहे थे
मेरे घर के सदस्य की भांति
तभी मन का अँधेरा समाप्त हुआ

कही से एक पत्ता उडाता आया
ओउर ठहर गया मेरी हथेलियों पर
अभी भी उस पर मोती बसा था
जेसे बंधन हो जन्मो का
परन्तु सुख जायेगा यह मोती
क्षण मैं लिन्न हो जायेगा यह ठहराव

फिरर संध्या की दुल्हन आते ही
यह धुप किसी आम के झुरमुट से
उसे झांकता रहेगा


मुसाफिर

मैं तो एक मुसाफिर हु
यु ही चलता रहूँगा
क्षितिज के उस पार खड़ा
सब कुछ देखता रहूँगा

जीवन के हर दो रहो मप्र
ढलते सूरज से ही मेने रास्ता देखा
इंतज़ार किया हर शाम
फेला कर बाहे
तारो की छाया समेटने को

मैं चलता रहा फिर भी नहीं पहुंचा
उस अनजान लक्ष्य पर
बहुत कुछ था कहने को मेरे पास
पर सुन्यता थी मेरे सब्दो मैं

एक कशमकश ने मुझे जीना सिखाया
सुन्या से कुछ आगे बाध्य
पर मैं अब भी मुसाफिर हु
अपने जीवन की इस बस्ती मैं

यहाँ मुझे लोग ऐसे छूटे
जेसे प्रान्नी हु विचित्र प्रदेश का
इसे देखते जेसे
इस अँधेरे मैं रौशनी तलाश रहे हो

सब कुछ भुला वहा पहुँच जाते
एक ऐसे निर्णय पर
जहा मुझे छोड़ दिया गया
फिर मुसफिर्र बनाने के लिए...

चल चला चल

विनयशील हो पथ पर तू चल चला चल
रह तेरी और मुड़े
एसी दृढ भावना कर चल
तू चल चला चल

है ख्सितिज़ के उस पार भी कोई खड़ा
स्वप्नों से जा जो लड़ा
तोड़ पुराने बन्धनों को
चू कर्र स्वच्छा जल को
खत्म न हो जाये कही यह दल
तू चल चला चल

है वनमाली तू कट उन डालो को
पापी है जिस दाल पर जन्म लेते
धुन्ध्ते श्हंती आंसुओ मैं
मदिरालय जाकर जो लहू पिटे
उन्हें तू घटा चल
तू चल चला चल..

हो जा निडर हो जा सतर्क
हो सूरज सा तेज तू ..
फिर किसी मुसाफिर का पथ बंजा तू
तू चल चला चल

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धन्यवाद