इमारते
कुछ शांत कड़ी
कुछ अपने अवशेषों से लड़ती
कुछ कहना चाहती है हमसे
यह इमारते
क्यों नहीं आज कोई बात करता इनसे
सब एक बार देख कर मुद जाते
जो ठेअरते भी
तो केवल
इसके इतिहास के पन्नो को पलट
पुराना कहकर चले जाते
किसी ने इन्हें समझा भी
तो केवल
इन पर से समय की धुल उठाने
तथा
कुछ ने पैसो का जरिया मन
पर यह भी कुछ कहना चाहती है
यह भी तो कभी इसी समाज
की भागेदार थी
तो फिरर
क्यों छोड़ दिया गया
जंगलो के मध्य अकेला
वो किससे कहे अपनी बात
कोई आता है
तो इसके अंगो पर
अपने प्यार की चाप छोड़ जाता
कोई रुकता
तो इसके सोंदर्य पर
दो कविता लिखकर चला जाता
कोई कहता,
तो इसे हाशिया समझ चुप हो जाता
यह भी तो कहना चाहती है हमसे
कुछ भी ,
जो भी इस ईमारत का अनुभव हो
जो भी,
यह बतना चाहे हमसे अपना दर्द
कुछ भी,
सुनना चाहे इसके अपनो की आवाज़
जो कही ,
दब गई इसके किनारों मैं फसकर
हो सकता है ,
घुटता हो दम इस ईमारत का
अब यु ही यह चाहती है मुक्ति
आस है
हम इसे वापस धरा मैं मिला दे
नहीं तो
फिर कोई इसे पुनह बना
छोड़ देगा समय के हाथो
इस पर पड़ते प्रहारों
तथा उठाते दर्द से लड़ने को...
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